गुरुवार, 21 फ़रवरी 2008

माँ


जब एक नया जीवन पाने को मैं इतराता हूँ
इस दुनिया को देखने को मेरी आँखे जब तरसती है
तब एक मन्दिर के दीये सा मैं तेरी कोख में जल जाता हूँ

जब मुझको यहाँ की रीत न समझ में आती है
इस दुनिया के ताने बाने मुझको बेमानी से लगते है
तब एक नन्हें फूल सा मैं तेरी गोद में खिल जाता हूँ

यहाँ के झूठे सब रिश्तो से जब मैं टूट जाता हूँ
ढून्ढता हूँ जब मैं एक सच्चा प्यार कही
तब मैं एक प्यासे पंछी सा तेरे आँचल में छुप जाता हूँ

यहाँ के उलझे हुए रास्तों में जब मैं उलझ जाता हूँ
होता नही कोई राह दिखाने को जब
तब मैं उन राहों पे बस तेरी दुआओं से चलता जाता हूँ

जब इस जीवन का आखिरी समय आ जाता है
थक जाता हूँ मैं इस ज़िंदगी से
तब मैं एक पौधा बन फिर से तेरी कोख मैं उग जाता हूँ

-तरुण

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