रविवार, 28 सितंबर 2008

मंजिल

बहुत रोका था मेरी माँ ने
जब घर से निकला था
उसके आँसूओ ने तो
अब तलक पीछा नही छोड़ा
फिर भी न जाने कौन सी
मंजिल मुझे पानी थी
न माँ को देखा
न उसके आँसू ही पोछे कभी
और आज
जब अपने घर से बहुत दूर
बैठा हूँ तनहा
तो सोचता हूँ
क्या ये ही मंजिल थी मेरी
जिसके लिए मैं इतना भागा था
इस दौड़ मैं इतना खो जाता था अक्सर
कि आईने से
अपना नाम पूछता था मैं
ये मंजिल जो कभी
बहुत हसीं लगती थी मुझको
आज बहुत बेमानी नज़र आती है
और अब अक्सर बैठकर तन्हाईयो में
मैं इंतज़ार करता हूँ
कि एक बार कोई बुला ले
मुझको वापिस
बस एक आवाज़ देदे
और मैं लौट जाऊं
मैं वापिस घर लौट जाऊं

-तरुण

ज़िन्दगी

सुबह उठते ही
बुला लेती है मुझको ऐसे
मेरे घर में मेरी बीवी जैसे
कभी ये कभी वो
कभी इस तरफ़ दौड़ता हूँ
कभी फिर से वापिस लौटता हूँ
कभी काम के पीछे भागता हूँ
कभी काम से भागता हूँ
सुबह से ऐसे शुरू होती है
कि देर रात तक ख़त्म नही होती
और जब थककर नींद आँखे छीन लेती है
जब पलकें ख़ुद ही बंद होने लगती है
तब कही जाकर कुछ सुकून मिलता है
बहुत अजीब हो गयी है ज़िन्दगी मेरी
कि बस जीने के लिए आज कोई वक्त नही

-तरुण

मंगलवार, 16 सितंबर 2008

रस्म

अभी ख्वाब कुछ जगे न थे
कि सुबह ने उठा दिया
अभी फूल कुछ खिले न थे
कि रात ने सुला दिया
अभी कदम कुछ मिले न था
कि फासला बढा दिया
अभी जुबां कुछ मिली न थी
कि सवालों को उठा दिया
अभी रास्तो पे चले न थे
कि मंजिलो को भुला दिया
अभी एक पल भी मुस्कुराये न थे
कि अश्को को बहा दिया
अभी कसमे कोई खाई न थी
कि हर एक वादे को भुला दिया
अभी नाम भी जुड़ा न था
कि हर रिश्ता तुमने मिटा दिया
एक बार मिलने से पहले ही
बिछड़ने कि हर रस्म को निभा दिया

-तरुण

सोमवार, 15 सितंबर 2008

फासला

बहुत देर तक चला था मैं
लेकिन
इतनी दूर भी नही गया था
कि तुम आवाज़ दो
और मैं लौट न सकूँ

-तरुण

रोज़

ऑफिस से लौटकर घर
और घर में
यूँ बैठता हूँ तन्हाइयो के साथ
जैसे बहुत पुरानी
एक दोस्ती है उनसे
फिर अहिस्ता अहिस्ता
दबे होठो से
देर तक उनसे बातें करता हूँ
और अक्सर रात को बिस्तर पे
उनकी कुछ बातें जब याद आती है
तो एक मुस्कान चेहरे पर आ जाती है
धीरे धीरे नींद मेरी आँखों में चली आती है
और जब उठता हूँ तो
फिर से वही सुबह हाथ उठाये बुलाती है
और कुछ देर में
उन तनहाइयो को
घर छोड़कर मैं
दिन की कशमकश में खो जाता हूँ
-तरुण

रविवार, 14 सितंबर 2008

फासले

ये फासले फैले हुए
ये रास्ते उलझे हुए
ये दरमियाँ निगाहों के
सिमटा अँधेरा
ये जुबां भी कुछ है
जुदा जुदा
ये बीच में हमारे
कभी तू कभी मैं
कभी लफ्जों की उलझन
कभी उलझे हुए से बंधन
न तुम कभी मुझे आवाज़ दो
न कभी मैं, मैं से आगे बढूँ
ये फासले यूँही चलते रहे
ये रिश्ता भी उलझा रहे
चलो
तुम आज एक आवाज़ दो
मैं इस मैं को छोड़ दूँ
तुम एक बार मिलने का वादा कर लो
मैं कभी न बिछड़ने की कसमे लूँ
तुम एक कदम बढ जाओ बस
मैं फासले सारे मिटा दूँ
तुम मुझे कुछ पल अपने दे दो
मैं तुम्हे ये अपनी ज़िन्दगी दे दूँ

-tarun

साया

दिन भर की कशमकश से
थककर जब भी
आ बैठता हूँ तेरे पहलू के साए में कुछ पल
तो यूँ लगता है जैसे
एक तपते हुए दिन को
शाम का ठंडा साया मिल गया जैसे

-तरुण

मंगलवार, 9 सितंबर 2008

रात और मैं

कितना तरसे थे इस दिन के लिए
जब मिला भी तो
बस शाम हो चली थी
कुछ लम्हे ही साथ रहा यह दिन
और फिर वही लम्बी रात हो गयी
बहुत ख्वाब सजाये थे
जागकर देर तक
इक सुबह की उम्मीद पे
न जाने कितनी बार
इस रात को जलाया था
सुबह न आयी
या शायद दरवाज़े से ही लौट गयी
और जब नींद खुली तो
फिर से वही तन्हाई थी
वो रात शायद अब तक मेरे बिस्तर पे पड़ी
मेरे साथ सो रही थी
मैं जागा तो आहट से वो भी जाग गयी
नाराज़ लग रही थी फिर वो आज
कुछ ऐसे देख रही थी मुझको
जैसे कल रात के ख्वाबो का हिसाब मांग रही हो
और पलट पलट कर
कुछ ऐसे हर बात पे जवाब देती थी
जैसे
समझा रही हो
कि मैं और वो एक जैसे है
वो भी बहुत तरसती है
उस एक सुबह के लिए
जिसके लिए हर रात मैं जागकर ख्वाब सजाता हूँ
लेकिन सुबह आती तो बस रात के जाने के बाद
और दिन ढलता है तो वो रात आती है
फिर जब मैंने भी बैठकर
अपनी ज़िन्दगी को सोचा
तो मुझे वो रात मेरे जैसे ही लगने लगी
-तरुण