मंगलवार, 9 सितंबर 2008

रात और मैं

कितना तरसे थे इस दिन के लिए
जब मिला भी तो
बस शाम हो चली थी
कुछ लम्हे ही साथ रहा यह दिन
और फिर वही लम्बी रात हो गयी
बहुत ख्वाब सजाये थे
जागकर देर तक
इक सुबह की उम्मीद पे
न जाने कितनी बार
इस रात को जलाया था
सुबह न आयी
या शायद दरवाज़े से ही लौट गयी
और जब नींद खुली तो
फिर से वही तन्हाई थी
वो रात शायद अब तक मेरे बिस्तर पे पड़ी
मेरे साथ सो रही थी
मैं जागा तो आहट से वो भी जाग गयी
नाराज़ लग रही थी फिर वो आज
कुछ ऐसे देख रही थी मुझको
जैसे कल रात के ख्वाबो का हिसाब मांग रही हो
और पलट पलट कर
कुछ ऐसे हर बात पे जवाब देती थी
जैसे
समझा रही हो
कि मैं और वो एक जैसे है
वो भी बहुत तरसती है
उस एक सुबह के लिए
जिसके लिए हर रात मैं जागकर ख्वाब सजाता हूँ
लेकिन सुबह आती तो बस रात के जाने के बाद
और दिन ढलता है तो वो रात आती है
फिर जब मैंने भी बैठकर
अपनी ज़िन्दगी को सोचा
तो मुझे वो रात मेरे जैसे ही लगने लगी
-तरुण

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