रविवार, 28 सितंबर 2008

ज़िन्दगी

सुबह उठते ही
बुला लेती है मुझको ऐसे
मेरे घर में मेरी बीवी जैसे
कभी ये कभी वो
कभी इस तरफ़ दौड़ता हूँ
कभी फिर से वापिस लौटता हूँ
कभी काम के पीछे भागता हूँ
कभी काम से भागता हूँ
सुबह से ऐसे शुरू होती है
कि देर रात तक ख़त्म नही होती
और जब थककर नींद आँखे छीन लेती है
जब पलकें ख़ुद ही बंद होने लगती है
तब कही जाकर कुछ सुकून मिलता है
बहुत अजीब हो गयी है ज़िन्दगी मेरी
कि बस जीने के लिए आज कोई वक्त नही

-तरुण

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