शुक्रवार, 21 मई 2010

तेरा ख़त

एक वो भी दिन था
जब तेरे ख़त के आने कि
खबर से ही महक उठते थे
दिन रात मेरे
और एक यह दिन है
तेरा ख़त सामने मेज़ पे पड़ा है
और उसे खोलकर पड़ने की हिम्मत नहीं होती ...

-तरुण

एक मोड़

न जाने कितनी बार
मुड़ मुड़ के रुक रुक के
फिर उस मोड़ पे लौटकर गया हूँ
जिस मोड़ पे तुम मेरा हाथ छुड़ाकर चली गयी थी
न जाने कितनी बार
उस एक एक राह से गुजरा हूँ
जिन पर तुम और मैं साथ चले थे

न कितनी ही बार
उस मोड़ पे घंटो रुक कर तुम्हारा इंतज़ार किया है 
कि शायद तुम भी लौटकर आ जाओ 
मगर हर बार में पहली बार कि तरह 
तनहा उदास लौटा हूँ ...

-तरुण 

बुधवार, 19 मई 2010

रूह

मेरी रूह जो न जाने कबसे खामोश बैठी है
एक बार बोली थी 
कुछ ख़ुशी में गुनगुनायी भी थी 
उस दिन जब तुम 
मेरे करीब आई थी 
मगर उस दिन के बाद 
अब तलक 
न कोई बोल उठा 
न कोई आवाज़ हुई 
बस एक उदास शाम के जैसे 
ये हर रोज़ मेरे घर की छत पे बैठकर 
तेरे आने के दिन गिनती है
और उन रास्तो को देखती है
जहाँ से तुम लौटकर गयी थी
मगर लौटकर आयी नहीं
लेकिन तेरे आने के उस एक दिन 
ये फिर से बोलेगी
फिर से ख़ुशी में कुछ गाएगी 
और एक बार उस हर नज़्म को गुनगुनायेगी 
जो तेरे जाने के बाद आज तक 
लिखी तो है मगर मुकम्मल न हुई 


-तरुण