शुक्रवार, 19 नवंबर 2010

fighter

जिस्म तो फिर भी छोटा था
मगर दिल उसका बहुत बड़ा था
आखिर बचपन से मुश्किलों से तो
लड़ता आया था वो
लेकिन एक दिन वो टूट गया
वो जो fighter कि तरह जीता था
वो हार गया
और अब तो ये हाल है उसका
कि अपने ही सायो के पीछे
छुपा रहता है वो ...
ज़िन्दगी शायद बहुत बड़ी होती है
और ये ज़रूरी तो नहीं कि
fighter हमेशा जीतता है

-तरुण

मंगलवार, 7 सितंबर 2010

शिकायत

कहना तो मूझे था
शिकायत तो मूझे करनी थी
पिछले न जाने कितने सालो का
हिसाब भी तो अभी बाकि था
इतनी जीने की जो शर्ते थी
उनके लिए भी कुछ गुफ्तगू ज़रूरी थी
मगर ये ज़िन्दगी जब सामने बैठी
मुझसे फिर कुछ इस तरह खेली
कि मैं जो कुछ भी कहने गया था
वो तो रह ही गया
और उस पर भी
न जाने कितनी और शर्तो का मूझे तोहफा मिल गया
देखो अब अगली मुलाक़ात कब होती है ....

-तरुण

बुधवार, 28 जुलाई 2010

फूल

याद है वो दिन
जब हम दोनों साथ में 
Rose Garden में घूम रहे थे 
और एक फूल को देखकर
मैं उसे तुम्हे देने के लिए तोड़ने गया था 
मगर तुमने मूझे रोक दिया था 
कहा था फूल अपनी बगियाँ में ही अच्छे लगते है 
वो फूल अब तक वहीँ महक रहा है 
और अब जब जब भी मैं 
तनहा अकेला उसके करीब से गुजरता हूँ 
वो मेरी तरफ एक नज़र उठाकर
मायूसी से पूछता है 
वो आज भी नहीं आयी क्या ? 

-तरुण 

गुरुवार, 15 जुलाई 2010

रोटी

उस दिन भी चूल्हा चल रहा था
और हम सब उसके आसपास बैठे थे 
माँ एक एक करके रोटी बना रही थी 
कभी छोटे की बारी आती कभी मेरी 
और कभी बाबा की 
मुन्नी तो बस माँ के साथ बैठकर हमे देख रही थी
अचानक से एक शोर आया 
शहर में फिर से दंगा भड़का था 
इस बार तो ये हमारे घर के करीब ही लगता था 
शोर सुनकर हम सब भागे 
माँ से मुन्नी को पकड़ा और बाबा ने हम दोनों को संभाला 
फिर हम सब ऐसे भागे थे 
कि एक एक करके सब खो गये थे 
जब तक होश आया 
तो मैं हिंदुस्तान में था 
माँ बाबा छोटा मुन्नी सब कही रह गये थे 
और वो भूख अब तक लगी हुई थी 
रोटी की अगली बारी मेरी ही तो थी 
न जाने कितने बरस बीत गये 
माँ बाबा छोटा मुन्नी सब 
अब एक ख्वाब सा लगते है 
लेकिन अफ़सोस तो ये है 
कि उस आग में अब तक भी 
न जाने कितने चूल्हे जलते है 
उस दिन हमारा घर जला था 
अब किसी और का जलता है 
कितने बच्चे अब भी अपनों से बिछड़ते है  
बहुत हो गया अब और न आग लगाओ 
मिलकर रहने दो सबको 
हर एक को अपनी रोटी खाने दो 
मेरी तरह वरना कितने 
उस रोटी क़ी भूख को लेकर हर रोज़ मरते रहेंगे  
माँ अब मेरी बारी है रोटी क़ी ....

-तरुण 


शुक्रवार, 21 मई 2010

तेरा ख़त

एक वो भी दिन था
जब तेरे ख़त के आने कि
खबर से ही महक उठते थे
दिन रात मेरे
और एक यह दिन है
तेरा ख़त सामने मेज़ पे पड़ा है
और उसे खोलकर पड़ने की हिम्मत नहीं होती ...

-तरुण

एक मोड़

न जाने कितनी बार
मुड़ मुड़ के रुक रुक के
फिर उस मोड़ पे लौटकर गया हूँ
जिस मोड़ पे तुम मेरा हाथ छुड़ाकर चली गयी थी
न जाने कितनी बार
उस एक एक राह से गुजरा हूँ
जिन पर तुम और मैं साथ चले थे

न कितनी ही बार
उस मोड़ पे घंटो रुक कर तुम्हारा इंतज़ार किया है 
कि शायद तुम भी लौटकर आ जाओ 
मगर हर बार में पहली बार कि तरह 
तनहा उदास लौटा हूँ ...

-तरुण 

बुधवार, 19 मई 2010

रूह

मेरी रूह जो न जाने कबसे खामोश बैठी है
एक बार बोली थी 
कुछ ख़ुशी में गुनगुनायी भी थी 
उस दिन जब तुम 
मेरे करीब आई थी 
मगर उस दिन के बाद 
अब तलक 
न कोई बोल उठा 
न कोई आवाज़ हुई 
बस एक उदास शाम के जैसे 
ये हर रोज़ मेरे घर की छत पे बैठकर 
तेरे आने के दिन गिनती है
और उन रास्तो को देखती है
जहाँ से तुम लौटकर गयी थी
मगर लौटकर आयी नहीं
लेकिन तेरे आने के उस एक दिन 
ये फिर से बोलेगी
फिर से ख़ुशी में कुछ गाएगी 
और एक बार उस हर नज़्म को गुनगुनायेगी 
जो तेरे जाने के बाद आज तक 
लिखी तो है मगर मुकम्मल न हुई 


-तरुण  

बुधवार, 28 अप्रैल 2010

ज़िन्दगी की रफ़्तार

ज़िन्दगी की रफ़्तार कुछ ऐसी होती है
कि कभी पल दो पल में
साल गुज़र जाते है
और कभी
पल दो पल ही साल बन जाते है
कभी सालो को गिनना
बहुत आसान हो जाता है
और कभी
पलों को गिनते गिनते ज़माने गुज़र जाते है
ज़िन्दगी कि रफ़्तार कुछ ऐसी होती है
कि कभी पल दो पल के ख्वाब
ज़िन्दगी भर को महका जाते है
और कभी न जाने कितने बरस
बस यादों में रह जाते है
ज़िन्दगी कि रफ़्तार कुछ ऐसी होती है
कि अक्सर बचपन के दिन
आँखों में रह जाते है
और बुडापे के दिन
आखिरी साँसों तक साथ निभाते है
ज़िन्दगी के दिन इतने अजीब होते है
कि इसको समझने से पहले यह ख़त्म हो जाते है
बस हम एक ज़िन्दगी में
नासमझ रह जाते है ....


-तरुण

बुधवार, 17 मार्च 2010

बीत गए

तुमको देखे ज़माने बीत गए
प्यार के दिन सुहाने बीत गए

जाम उठाकर कैसे भूलेंगे तुम्हे
मय गयी महखाने बीत गए

रोये भी तो अब कौन सुनेगा हमे
रोने के सब बहाने बीत गए

कहाँ जाकर मिलेंगे तुझे यह बता
छिपने के सब ठीकाने बीत गए

मैं भी चुप हूँ तू भी गुमसुम है
तेरे गीत मेरे तराने बीत गए

-तरुण

रविवार, 28 फ़रवरी 2010

किसी तरह

ये रात बिना नींद के गुजर जाये किसी तरह
सुबह के साथ तू भी मेरे घर आये किसी तरह

तडपते चाँद को रात ने बहलाया है बार बार
मूझे बस तेरा एक ख्वाब मिल जाये किसी तरह

मेरी हर आवाज़ तेरे दर से खाली लौट आती है
कभी एक पुकार पे तू भी आ जाये किसी तरह

मैं लोगो कि भीड़ में अक्सर खोया रहता हूँ
कभी किसी भीड़ मैं तू भी खो जाये किसी तरह

छोटी छोटी उम्मीदों से मैंने कितने आस्मां सजाये है
एक तेरा चाँद बस मेरी गली उतर जाये किसी तरह ..

-तरुण

रविवार, 31 जनवरी 2010

रिश्ता

मैं जिससे भी मिलता हूँ
उसके जैसा हो जाता हूँ
उसके ख्यालो को सोचता हूँ 
उसकी आहटो पे चलता हूँ 
उसकी आवाजो मैं बोलता हूँ 
कोई फिर भी  क्यूँ 
मेरी तरह नहीं सोचता है ...

मैं उसके गीतों को सुनता हूँ
उसकी साँसों को जीता हूँ 
उसके नगमे गाता हूँ 
उसके सपनो को लेता हूँ
कोई फिर भी क्यूँ
मेरी तरह नहीं सोचता है...

-तरुण 


शुक्रवार, 15 जनवरी 2010

अमन की आशा

Written in context of India and pakistan, for someone who was born in pakistan but migrated to india in 47, today he remember the days spent in pakistan, his original home

वही तो घर मेरा था
वही पे पहली दफा मैं
माँ का हाथ पकड़कर कुछ कदम चला था
वही पे पहली दफा मैंने
स्कूल में जाकर कुछ तो लिखा था
वही तो घर मेरा था
वही पे मैंने सब ख्वाब देखे थे
वही पे हर एक रिश्ता बुना था
वही तो घर मेरा था
आज वो सब बिछड़ गया है
बदल गयी सरहदों की लकीरे
आज भी मगर कुछ तो जुडा है
वही तो जो कल मेरा था आज भी वो मेरा है


-तरुण