बुधवार, 30 जनवरी 2008

घर


ये घर मेरा वो घर मेरा
ये लोग मेरे वो लोग मेरे
सवाल बहुत मामूली है
लेकिन ज़िंदगी बहुत उलझी है
कभी इस घर कभी उस घर
कभी इस देस कभी उस देस
मैं घूमता रहा भटकता रहा
न वहाँ कोई मिला
जो बाँध सका मुझको
न यहाँ कोई मिला
जो रोके मुझको
मैं चलता रहा सब बदलता रहा
न यह घर मेरा न वो घर मेरा
न यह लोग मेरे न वो लोग मेरे ॥

-तरुण

मंगलवार, 29 जनवरी 2008

तुम्हारी आंखे


जब जब ज़िंदगी ने मुझको किया निराश
जब जब मैंने पाया सुना सा आकाश
भटककर रास्तों में भुला अपने पथ को
खो गयी सब मंजिले और हुआ मैं हताश

तब तब मुझे याद आयी तुम्हारी आँखे
मुझमे आशा का दीपक जगाती तुम्हारी आँखे
राहों को मेरी करके आलौकित
मंजिलो कि तरफ मुझको ले जाती तुम्हारी आँखे

जब जब भी थककर मेरे कदम लगे रुकने
आगे बढना चाह तो पीछे लगे हटने
आँखों ने भी जब मेरा साथ यूं छोडा
साँसे भी मेरी जब जब लगी थमने

तब तब मुझे याद आयी तुम्हारी आँखे
साँसों में नया जीवन जगाती तुम्हारी आँखे
आँखों को मेरी नए सपने दिखाकर
आगे बढने की नयी चाहत जगाती तुम्हारी आँखे

जब जब भी मैंने असफलता को पाया
ज़िंदगी से भागा तो मौत ने भी ठुकराया
भुलाकर दुखो को खुश होने की सोची तो
खुशियों ने जब मुझसे दामन छुडाया

तब तब मुझे याद आयी तुम्हारी आँखे
असफलता में सफलता की मूरत सजाती तुम्हारी आँखे
दुखो को मेरे खुद सह सह कर
खुशियों को मेरे पास बुलाती तुम्हारी आँखे ॥

-तरुण

( १९९८ में लिखा गया )

सज़ा


वो जिसको मैं दीवाना कहा करता था
वो जो अक्सर रातो में गुनगुनाया करता था
सुना है कल रात वह पुलिस एनकाउन्टर में मारा गया
मिला न कोई उग्रवादी शायद इसीलिए फंस वो बेचारा गया
गुनाह तो बस उसका इतना था कि वो रातो को घूमता था
दिन में अँधेरा लगता था शायद इसीलिए
रातो में अपनी महबूबा को ढूढंता था
जो न जाने कितने बरस पहले उसको छोड़ गयी थी
गरीब था बेचारा इसीलिए दिल उसका वो तोड़ गयी थी
बहुत समझाया था लोगो ने कि वो अब न आएगी
कौन बच पाया है पैसे से जो वो बच के वापिस आएगी
लेकिन वो तो दीवाना था जो करता हर पल उसका इंतज़ार
ढूढंता था उसे हर राह में , पुकारता था उसको बार बार
दिन बीते महीने बीते ने जाने कितने बरस बीत गए
दोस्त छूटे , साथी छूटे दूर सारे मीत गए
वो बचा था और उसका दीवानापन था
एक धुन थी पागलों सी और एक पागलपन था
और कल रात के अँधेरे में गोलियां चली कहीं पर
आज सुबह एक गोलियों से छलनी लाश मिली वही पर
मर गया वो जिसको दीवाना सब कहते थे
बंद हो गयी आँखे जिसमे आंसू ही बस बहते थे
खबर फैली है लेकिन यह खबर तुम उसकी महबूबा तक भी पहुँचा देना
कहना एक आंसू अपने दीवाने के लिए तुम भी ज़रा बहा देना
वर्ना मरकर भी उसकी रूह भटकती जायेगी
इस बार तो गोलियां मिली है न जाने
अगली बार वो क्या सज़ा पायेगी ....

-तरुण

(written somewhere in 1997-98)

वो आती है जब जब


कभी कभी वो आती है जब जब
कभी कभी वो कुछ कहती है जब जब
हवाओं में घुल जाती है एक खुशबू और
तन्हाइयां भी एक सरगम गाती है तब तब

कभी कभी वो मुस्कुराती है जब जब
कभी कभी वो जुल्फें बिखराती है जब जब
बागों में बहारें लगती है झूमने और
आसमानों में घटायें छा जाती है तब तब

कभी कभी वो कुछ गुनगुनाती है जब जब
कभी कभी वो कुछ शर्माती है जब जब
हर तरफ पंछी लगते है चहचहाने और
बादलों में चांदनी छुप जाती है तब तब

-तरुण

(written sometime in 1999-200)


तुम


वो तुम जिसको मैं तनहाइयों में पुकारा करता था
वो तुम जिसको मैं ख्यालों में संवारा करता था
वो तुम कहाँ थे
वो तो एक परछाई थी
जो शायद सुबह होते ही मेरे पास आयी थी
और शाम होते ही वो सूरज के साथ डूब गयी
मैं तुम तुम करता रहा और नींद टूट गयी
अब न तुम थी न ही थी कोई परछाई
एक मैं था बस और थी
मेरी ज़िंदगी कि एक नयी लड़ाई ।

-तरुन

(written somewhere in 1999)

गुरुवार, 24 जनवरी 2008

पैगाम


कोई भी तो नही है जो पढ़ेगा इसको
फिर भी न जाने क्यों
मैं हर रोज़ हर सुबह
अपनी डायरी पे तेरे नाम एक पैगाम लिखता हूँ
लिखता हूँ मैं अपने दिल का सब हाल
पिछले दिन के हर एक पल का हिसाब मैं लिखता हूँ
कुछ सवाल जो तुझसे पूछने है
उन सब सवालो के जवाब मैं लिखता हूँ
कुछ नए वादे मैं तुझसे करता हूँ
और पिछली रात के भूले से ख्वाब मैं लिखता हूँ
जानता हूँ कोई न पढ़ेगा इसको
फिर भी न जाने क्यों हर रोज़ हर सुबह
मैं तेरे लिए कुछ दुआएं लिखता हूँ

-तरुण

सोमवार, 21 जनवरी 2008

तुम आज भी नही आये


सुबह हो गयी है
घडी का अलार्म न जाने कितनी बार बजकर बंद हो गया है
सुबह का अख़बार भी ज़माने भर की खबरें ले आया है
भाजीवाला भी ताज़ा ताज़ा सब्जी दे गया है
टीवी पर सुबह सवेरे का कार्यक्रम भी ख़त्म हो गया है
दादा जी भी सामने वाले पार्क में योग करके लौट आये है
लेकिन आज भी मेरे दरवाजे पे तुम्हारी कोई दस्तक नही हुई
तुम आज भी नही आये

-तरुण

गुरुवार, 17 जनवरी 2008

दो बातें


फासले सब मिट जाते है, दीवारें सब गिर जाती है
दो बाते जब हो जाती है

कुछ गम कम हो जाते है, कुछ खुशियाँ मिल जाती है
दो बातें जब हो जाती है

कुछ रिश्ते नए जुड जाते है, कुछ चाहते बन जाती है
दो बाते जब हो जाती है

कुछ आंसू कोई पोंछ देता है, कुछ मुस्काने होठों पे आ जाती है
दो बातें जब हो जाती है

कुछ रास्ते आसान हो जाते है, कुछ मंजिले मिल जाती है
दो बातें जब हो जाती है

-तरुण

दीवाना


वो मुझको दीवाना सा लगता था
सारा दिन बस चाँद तारो के साथ खेलता था
और उनकी ही बाते करता था
कभी कायनात में जाकर छुप जाता था
और कभी चाँद को ज़मीन पे बुलाता था
एक दिन तैश में आकर
मैंने भी बादलों पे चढ़कर
चाँद के गुब्बारे पे
कुछ तारे फेंककर मारे
कुछ उल्काओ के साथ गोटियाँ खेली
और कायनात में नए दोस्तो के साथ कुछ दिन गुजारे
अब मैं भी उनकी ही बाते करता हूँ
उनके ही किस्से कहता हूँ
शायद अब मुझे भी लोग दीवाना कहते होंगे॥

-तरुण

एक कविता


आँखे बंद करके, तुझे याद करके
मैं जब जब पेन उठाता हूँ
टूटे फूटे सपनो से , उलझे हुए शब्दों से
मैं जब जब कुछ लिख जाता हूँ
लगता है जैसे एक कविता बन जाती है

भूली हुई सी यादो में , चुपचाप सी बातो में
मैं जब जब खो जाता हूँ
खामोश सी एक पुकार से , दबे हुए एक प्यार से
मैं जब जब तुझे बुलाता हूँ
लगता है जैसे एक कविता बन जाती है

रोती हुई सी आंखो से , थमी हुई सी साँसों से
मैं जब जब चाह नयी बनाता हूँ
डरी हुई सी धडकनों से , रुके हुए से कदमो से
मैं जब जब तेरे करीब जाता हूँ
लगता है जैसे एक कविता बन जाती है

-तरुण

हिसाब


बहुत उलझा था मैं ज़िंदगी के हिसाब में
कुछ समझ ही न आता था
क्या कुछ मैं ले आया हूँ
और क्या पीछे छुट गया है
जो मिला वो शायद कम न था
लेकिन जो रह गया था
उसको सोचना भी मुश्किल था
फिर अचानक
आँखों से कुछ आंसू टपके
और लगा जैसे सब हिसाब हो गया

-तरुण

बुधवार, 16 जनवरी 2008

ज़िंदगी


बहुत लड़ती है मुझसे तू मेरी ऐ ज़िंदगी
जैसे मेरी हमसफ़र मेरी बीवी हो तुम
लेकिन कभी प्यार से बुलाती भी तो नही ,
हर एक बात पे ऐसे नखरे दिखाती हो
हर एक कदम पे ऐसे दूर चली जाती हो
जैसे मेरी माशूका मेरी महबूबा हो तुम
लेकिन कभी मेरा हाथ थामती भी तो नही
न कभी मुझसे कदम मिलाती हो
बस मुझसे लड़ती रहती हो, मुझको बहुत सताती हो ।
-तरुन

तेरे पास


ज़िंदगी क्या ज़रा सा हाथ ढीला करती है
मैं एक बच्चे सा हाथ छुडाकर तेरी तरफ चला आता हूँ
छोड़ आता हूँ वो दिन रात के झगडे
वो हर सांस कि कशमकश भी ज़िंदगी को ही दे आता हूँ
मैं तेरे पास चला आता हूँ
बैठता हूँ तनहाइयों में फिर से
तुमसे फिर कुछ बाते करता हूँ
आँखे बंद करके तुम्हे पास बुलाता हूँ
तेरी यादो को सोते से जगाता हूँ
घर में दरवाजों पे न जाने कितने चिराग जलाता हूँ
और खुली आंखो से फिर से कुछ नए ख्वाब सजाता हूँ
जब जब भी छोड़ती है मुझको अकेला ये ज़िंदगी
मैं भागकर तेरे आगोश में चला आता हूँ

-तरुन

मंगलवार, 15 जनवरी 2008

छोटू


मैं भी जब इस दुनिया में आया था
मुझे देखकर मेरी माँ भी मुस्कुराई थी
उसकी आंखो में भी मेरे लिए कुछ सपने जागे थे
उसके दिल ने भी शायद
मूझे कुछ दुआएं दी थी
आज माँ का तो चेहरा याद नही
लेकिन उसने
मूझे महलो की दुआएं दी होगी
सोचा होगा मेरे घर की भी एक छत हो
मेरे घर में भी हर बात का सुख हो
वो दुआएं सुन ली है भगवान् ने शायद
इसीलिए
मैं एक बडे से महल में रहता हूँ
सब मुझे छोटू कहते है
शायद प्यार से भी कभी ।
दिन भर मैं काम करता हूँ
लेकिन जब रात को सोता हूँ
तो मुझे माँ बहुत याद आती है
सुना है वो लौरी सुनाती है
और जब नींद न आये तो अपनी गोदी में छुपा लेती है
हर रात मेरी बिना ख्वाबो के चली जाती है
और हर सुबह
मैं भगवान् से एक ही दुआ माँगता हूँ
मुझे भी अगली रात के लिए कुछ ख्वाब दे दो
मैं भी कुछ सपने जीना चाहता हूँ
-tarun

गुरुवार, 10 जनवरी 2008

जेट लैग


दिन भर नींद से लड़ता था
दिन भर पलको के दरवाज़े खोलकर
नींद को भगाता रहता था
फिर भी न जाने कहाँ से नींद आकर
उन दरवाजों को बंद कर जाती थी
और चुपके से एक झपकी लग जाती थी

रात भर नींद का इंतज़ार करता था
रात भर आंखो को बंद करके
नींद को क़ैद करने की कोशिश करता था
फिर भी न जाने कहाँ से
उन बंद दरवाजों को खोलकर
नींद आकाश में उड़ जाती थी
और वह रात भी मेरी बिना नींद के चली जाती थी

-tarun

सोमवार, 7 जनवरी 2008

यादें


गुज़रते वक़्त को बहुत खींचा था मैंने
मगर जब यह गया
जब छूटा हाथो से
तो चटखकर इतनी दूर चला गया
कि जैसे बरस बीत गए हो
अभी कुछ दिनों ही की तो बात है
लेकिन कल रात जब मैंने
यादो का सूटकेस खोला तो
सब यादें मुरझा गयी थी
कुछ यादें तो शायद इंतज़ार में थी
मुझे देखा और दम तोड़ दिया
कुछ यादो कि उम्र शायद बहुत छोटी होती है

-tarun
(written in foster city on 4th january)

एक ग़ज़ल


जाने की जिद्द में क्या क्या फ़साने बना दिए
मेरी मोहब्बत के फूल पे सब कांटे लगा दिए

क्या कहे की आज कितने मजबूर हो गए
उन्होने हमारे ख़त सब कल रात जला दिए

अब क्या बताऊं उनको की कितना प्यार है
उन्होने मेरी मोहब्बत के सारे रिश्ते छुडा दिए

याद दिलाये तो कैसे उन्हें उनकी वह कसमें
उन्होने सब कसमो पे एक बार आंसू बहा दिए

अब अँधेरे में चलना ही है नसीब मेरा
इसीलिए घर के सारे चिराग हमने बुझा दिए

-तरुन

(written sometime in 2002 in delhi )

त्रिवेणी के कुछ और कतरे

आज की रात चाँद कितना मायूस है
आज कि रात चांदनी भी बहुत मद्धम है
आज कि रात छत पे नही आये तुम ।
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आज की रात बहुत भीगी सी है
आज कि रात बदल भी मुसलसल बरसा
तुम चले गए हो क्या यह भी जानते है ।
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आज की रात दरवाजे पे हुई दस्तक
आज की रात तुम फिर मेरे घर आये
आज की रात फिर एक ख्वाब सा देखा मैंने ।
***************
आज की रात चाँद ज़मीन पे उतरा
आज की रात सडको पे बहुत उजाला था
आज की रात मेरे मोहल्ले से गुज़रे हो तुम ।
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आज की रात हम देर तक जागे
आज की रात हम बस चाँद को देखते रहे
एक पुरानी किताब में तेरी तस्वीर मिली मुझे आज की रात ।
***************
आज की रात चाँद भी बादलों में छुपा है
आज की रात तारे भी कुछ ढ़ूंढ़ रहे है
तेरे कमरे की खिड़की पे पर्दा टंगा है आज कि रात ।
****************
आज की रात नींद ने फिर आँख मिचोली खेली
आयी, मगर कुछ देर में नाराज़ सी लौट गयी
तुम बहुत गुस्से में हो लगता है आज कि रात ।
***************
आज की रात चाँद कश्ती भी डूब गयी बादलों में
आज की बहुत पानी बरसा ज़मीन पर
तुम ज़रूर रोये हो मेरा नाम लेकर आज की रात ।
***************
आज की रात चलो हम भी देर तक जागे
आज की रात चलो हम भी कुछ बात करे
अपनी यादो को कह दो कुछ बोले हमसे आज की रात ।
***************
आज की रात बहुत लंबी है
आज की रात चाँद भी थक गया है इंतज़ार में
तुम उठ जाओ ज़रा खोल लो आँखे अपनी ।
-तरुन

बुधवार, 2 जनवरी 2008

एक नया रिश्ता


टूटे फूटे से कुछ रिश्ते लेकर मैं भी आया तुम भी आये
मैंने भी कुछ ज़ख्म टटोले तुमने भी कुछ घाव दिखाए

मैंने भी कुछ बीती यादो को फिर से लफ्जों में लपेटा
तुमने भी कुछ भूले किस्सों पे टप टप टप आंसू छलकाए

मैंने भी टूटे सपनों को एक एक करके फिर से जोडा
तुमने भी बिखरी ख्वायिशो के तागो में कुछ गाँठ लगाए

मैंने भी जलते होठो पे तेरी चाह कि बर्फ को रखा
तुमने भी बुझती साँसों पे मेरे प्यार के दीप जलाए

-तरुन

(written on Jan 2, 2008 at foster city)

किरायेदार


देखो अब तुम नही हो
तो कैसे
किरायेदार सी घुस गयी है यह नींद मेरी आंखो में
बस कुछ देर ही ये इधर उधर आवारा सी घूमती है
वरना सारा दिन सारी रात
यह बेरोजगार सी बस आंखो में पड़ी रहती है
कल गया था एम्प्लोय्मेंट एक्सचेंज
इसका नाम लिखवाकर आया हूँ
कोई नौकरी कोई काम मिल जाये इसे तो शायद
कुछ किराया भी मिल जाएगा
वरना कितने महीने हुए है मेरी आंखो में
कोई ख्वाब नही आया है

-तरुण
(written on 31st dec on a flight from delhi to taipei)

एक नज्म - खाली सीट


कुछ इस तरह बदल गया है नसीब मेरा
कल तुम चले गए थे
और आज
जब निकला हूँ एक नए सफर पे
तो देखो इस प्लेन में साथ वाली सीट भी खाली पड़ी है

(written on 31st dec, 2007 on a flight from delhi to taipei)