मंगलवार, 29 जनवरी 2008

तुम्हारी आंखे


जब जब ज़िंदगी ने मुझको किया निराश
जब जब मैंने पाया सुना सा आकाश
भटककर रास्तों में भुला अपने पथ को
खो गयी सब मंजिले और हुआ मैं हताश

तब तब मुझे याद आयी तुम्हारी आँखे
मुझमे आशा का दीपक जगाती तुम्हारी आँखे
राहों को मेरी करके आलौकित
मंजिलो कि तरफ मुझको ले जाती तुम्हारी आँखे

जब जब भी थककर मेरे कदम लगे रुकने
आगे बढना चाह तो पीछे लगे हटने
आँखों ने भी जब मेरा साथ यूं छोडा
साँसे भी मेरी जब जब लगी थमने

तब तब मुझे याद आयी तुम्हारी आँखे
साँसों में नया जीवन जगाती तुम्हारी आँखे
आँखों को मेरी नए सपने दिखाकर
आगे बढने की नयी चाहत जगाती तुम्हारी आँखे

जब जब भी मैंने असफलता को पाया
ज़िंदगी से भागा तो मौत ने भी ठुकराया
भुलाकर दुखो को खुश होने की सोची तो
खुशियों ने जब मुझसे दामन छुडाया

तब तब मुझे याद आयी तुम्हारी आँखे
असफलता में सफलता की मूरत सजाती तुम्हारी आँखे
दुखो को मेरे खुद सह सह कर
खुशियों को मेरे पास बुलाती तुम्हारी आँखे ॥

-तरुण

( १९९८ में लिखा गया )

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