मंगलवार, 29 जनवरी 2008

तुम


वो तुम जिसको मैं तनहाइयों में पुकारा करता था
वो तुम जिसको मैं ख्यालों में संवारा करता था
वो तुम कहाँ थे
वो तो एक परछाई थी
जो शायद सुबह होते ही मेरे पास आयी थी
और शाम होते ही वो सूरज के साथ डूब गयी
मैं तुम तुम करता रहा और नींद टूट गयी
अब न तुम थी न ही थी कोई परछाई
एक मैं था बस और थी
मेरी ज़िंदगी कि एक नयी लड़ाई ।

-तरुन

(written somewhere in 1999)

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