मंगलवार, 29 नवंबर 2011

शिकायत

बेदर्द ज़माने से बस इतनी ही शिकायत है 
क्यूँ पत्थर की मूरत को यूँ खुदा बना डाला 
वो खुद ही परेशां है अपनी मुजबूरियों पे 
क्यूँ कर के दुआ उसको आँखों में बसा डाला 

उससे तो बेहतर है पत्थर के सनम अपने 
वो नफरत तो करते है वादों से मुकरते है 
पत्थर तो पत्थर है कब सुनता,कुछ कहता है 
क्यूँ जोड़ के हाथो को माथे पे बिठा डाला 

क्यूँ करके दुआ उसको आँखों में बसा डाला ...

माथे पे शिकन सी है आँखों में उदासी है 
इंसान की रूहे तो जन्मो से प्यासी है 
ये ऐसे ही तरसती है मोहब्बत को तरसती है   
क्यूँ तोडके इंसान को पत्थर का बना डाला 

क्यूँ करके दुआ उसको आँखों में बसा डाला ...

-तरुण 



सोमवार, 31 अक्तूबर 2011

हम बहुत रोये

तुझसे दिल लगाके हम बहुत रोये 
एक पल मुस्कुराके हम बहुत रोये 

तेरे सामने तो कुछ कह न सके 
अपने घर जाके हम बहुत रोये 

बरसो से चुप रहे तो सब ठीक था 
अपना हाल सुनाके हम बहुत रोये 

कमी तू मुझमे भी बहुत थी लेकिन 
तुझको खुदा बनाके हम बहुत रोये 

तुझे जाना है जानता था मैं इसीलिए 
तुझे नज़र बचाके हम बहुत रोये 

-तरुण 

शुक्रवार, 19 अगस्त 2011

इंतज़ार

वक़्त से कुछ न कहा मैंने 
वो आया और लौट गया 
रास्तो को भी कहाँ रोका था मैंने
न कितने मुसाफिर आये और चले गये 
दिन निकले और ढल गाए 
रातें भी ख़ामोशी से आयी 
और चुपचाप चली गयी 
चाँद ने भी मुझसे कुछ नहीं कहा 
मुझसे रात भर आँख बचाकर चमकता रहा 
एक तुम क्या गये
दुनिया बदल गयी मेरी 
लेकिन मैं फिर भी उसी जगह खड़ा रहा 
जहाँ तुम मूझे छोड़ गयी थी 
इस इंतज़ार में कि शायद 
कभी किसी बहाने से तुम लौट आओ 

-तरुण 

मंगलवार, 16 अगस्त 2011

बेबसी

बहुत से बहाने है ज़िन्दगी में 
न जाने कितने और रिश्ते भी तो है 
देश विदेश के 
और बहुत सारे किस्से है 
समाज कि ऊँची नीची 
छोटी बड़ी न जाने कितनी बातें है 
मगर फिर भी न जाने क्यूँ
जब कुछ भी लिखने बैठता हूँ 
तो सिर्फ ज़िक्र तेरा ही होता है 
और  मेरी हर नज़्म तेरे नाम से शुरू होकर 
तुझपे ही ख़त्म होती है ...
कितना बेबस सा हूँ मैं .....

-तरुण 

बहाना


बहुत मायूस था मैं
न जाने कितने दिनों से 
बहुत सोचा मगर कुछ समझ न पाया 
पर 
आज अचानक 
एक पुरानी किताब से 
तेरी तस्वीर जो निकली 
मूझे जैसे जीने 
फिर से एक बहाना मिल गया ..

-तरुण 

सोमवार, 15 अगस्त 2011

बंद कमरे

बंद कमरों में मूझे घुटन होती है 
बंद कमरों में मेरी साँसे रूकती है 
बंद कमरों में बहुत तडपता हूँ मैं 
जब तुम होती थी तो इस घर के 
खिड़कियाँ और दरवाज़े सब खुले रहते थे 
अक्सर खिडकियों से ख्वाब आते थे 
और दरवाजों पे ज़िंदगियाँ दस्तक देती थी 
लेकिन 
जब से तुम गयी हो 
न ही कोई ख्वाब आता है और 
न कभी कोई दस्तक होती है 
और मैं बस इन बंद कमरों में पड़ा रहता है 
मूझे बंद कमरों में बहुत घुटन होती है ....
-तरुण 

बुधवार, 10 अगस्त 2011

माँ

मैं अपने घर में तनहा नहीं रहता 
मेरे साथ मेरी माँ की दुआएं होती है 
जब दिन की मुशक्कत से थक कर 
मैं शाम को घर लौटता हूँ 
तो उनके सायों में मुझे सुकून मिलता है 
देर रात तक
मेरे बिस्तर के किनारे बैठके वो 
मुझे सोते हुए देखती है 
सुबह को उठाकर मुझे 
प्यार से वो
नयी उम्मीदों से मुझे वो जोडती है
मेरी माँ मुझसे बहुत दूर है 
लेकिन 
हर आहत पे मेरे करीब होती है 

-tarun


बुधवार, 27 जुलाई 2011

पहचान

चलो उतार फैंके ये पहचान हम अपनी
अपने चेहरे भी निकल के रख दे हम
एक ही रंग करले अपने बदन का 
फिर देखे 
कैसे इंसान इंसान को देखता है 
कैसे आमिरी गरीबो के 
ऊपर से गुजरती है 
कैसे बांटती है सरहदे हमको 
कैसे सियासत हमे तोडती है 
चलो एक से हो जाये हम ...

-तरुण ...

मंगलवार, 24 मई 2011

उम्र

जब छोटा था तो 
माँ से अक्सर एक ही सवाल पूछता था 
मैं कब पापा जितना बड़ा होऊंगा 
माँ हंसकर उस बात को टाल जाती थी 
फिर जब भी वक़्त मिलता था 
तो आईने के सामने 
खड़े होकर मैं बड़े होने की 
practice भी करता था 
अब जब बड़ा हो गया हूँ तो 
वापिस उस बचपन को ढूढ़ता हूँ 
और अक्सर अपनी उम्र
भूलने की कोशिश भी करता हूँ 
लेकिन जब जब भी 
आईने के सामने आता हूँ 
मेरे सिर के काले बालो 
से निकलकर कुछ सफ़ेद 
मेरी तरफ देखकर मुझे 
मेरी उम्र मुझे बता जाते है ....

-तरुण 


गुरुवार, 28 अप्रैल 2011

फुर्सत

 कभी दिन गुजरते थे सालो में 
अब तो 
बरस दिनों में गुजरते है 
कभी फुर्सत में ख्वाब देखते थे
अब तो 
बस ख्वाबो में फुर्सत मिलती है 
ज़िन्दगी भी कितने रंग बदलती है ....

मंगलवार, 26 अप्रैल 2011

मैं जब जब भी आईने से मिलता हूँ

मैं जब जब भी आईने से मिलता हूँ 
अपने चेहरे से जुदा जुदा मैं दिखता हूँ 

अंधेरो का कब खौफ था मुझको 
मैं तो उजाले में अक्सर गिरता हूँ 

ज़माना क्यूँ मुझे अपना सा लगता है 
अपने घर में तो अजनबी सा मैं फिरता हूँ 

जब तेरी याद ही काफी है जीने के लिए 
क्यूँ तुझे देखने के लिए मैं मरता हूँ 

अपने होठो से करदूं बयाँ मैं सच अपना 
इस जीने के लिए क्या क्या मैं करता हूँ 

मैं जब जब भी आईने से मिलता हूँ 
अपने चेहरे से जुदा जुदा मैं दिखता हूँ 

-तरुण 

गुरुवार, 21 अप्रैल 2011

रिश्ता

जुबाँ से मत देना नाम 
इस रिश्ते को 
ये पाक़ रिश्ता मैला हो जायेगा 
जो अब तक 
मैंने न कहा तुमको 
और जो तुमने न कहा मुझको 
वो सब होठो पे आ जायेगा 
वो बेकरारी के लम्हे 
वो उम्मीदों की घड़ियाँ 
उन को एक मंजर मिल जायेगा 
मत दो नाम कोई इस रिश्ते को 
ये खुली किताब बन जायेगा 
कुछ रिश्ते क्यूंकि बंद किताबो 
में ही महफूज़ होते है 

-तरुण 

बुधवार, 30 मार्च 2011

मैच

कल रात बड़ी 
मुश्किल से कटी थी मेरी 
आज का दिन भी
कितना बेचैन बेचैन सा है 
आज शाम को फिर से
पुरे देश में कर्फ्यू होगा 
आज फिर गलियों में,
हर घर में एक ही चर्चा होगा 
आज रात को 
कभी जीत का शोर होगा
तो कभी हार के डर का सन्नाटा होगा
कल के अखबारों में भी 
बस एक ही किस्सा होगा
आज शाम का सबको
इंतज़ार है  
आज शाम बहुत खास है 
आज शाम को 
भारत पाकिस्तान का मैच है ...

-तरुण 




शुक्रवार, 18 मार्च 2011

होली

रंग लगाओ पानी से नहलाओ 
पानी में चाहे कुछ भी मिलाओ 
गले लगाओ गालो को सहलाओ 
प्यार से सबको अपना बनाओ 
गुज्जिया खिलाओ लड्डू खिलाओ 
 चाहे जितनी भी भंग पिलाओ 
शीला को नचाओ मुन्नी को नचाओ 
जैसे भी चाहे गाने बजाओ 
होली है बस होली मनाओ 
खुद भी खेलो सबको खिलाओ 


रविवार, 20 फ़रवरी 2011

तेरा नाम

बस तेरा नाम मेरा नसीब है 
तू ना जाने किसके करीब है  

मेरा दिल ही मेरा खुदा  रहा 
मेरा खुदा ये कितना अजीब है 

मुझे मौत से कोई गिला नहीं 
मेरी ज़िन्दगी मेरी रकीब है 

मेरी जान बुझती रही मगर 
तेरी याद दिल के करीब है 

कोई मुझे भी ढूंढता है कहीं 
कोई मेरा भी तो हबीब है 

-तरुण 


गुरुवार, 17 फ़रवरी 2011

search..

मैं आजकल कुछ ऐसे 
अपने सायों में छुपा रहता हूँ 
न किसी को दिखाई देता हूँ 
और न ही आवाज़ों में सुनायी देता हूँ 
कल तक जो उसकी यादें मुझे छोडती न थी 
वो अब गलियों में मेरा पता पूछती है 
और जो कभी मेरी आँखों में बसी रहती थी 
वो मुझे कभी facebook पे 
और कभी घंटो google पे मुझे ढूंढती है

सच में ज़माना बहुत बदल गया है ...

-तरुण 




बुधवार, 16 फ़रवरी 2011

मैं छुप जाता हूँ

मैं तेरे बिना तनहाइयों में जब घबराता हूँ
अपने सायें के सायें में, मैं छुप जाता हूँ

तेरे आने कि उम्मीदे कब मुझे थी मगर 
हर सुबह यूँ ही दरवाज़े पे मैं चला जाता हूँ 

जाने क्या पूछती है उसकी निगाहे मुझसे 
जो चुप रहकर भी मैं सब उससे कह जाता हूँ 

कब मिली है इस ज़माने की आदतें मुझसे 
क्यूँ मैं फिर भी इससे मिलता जाता हूँ 

जो मेरे मुक़द्दर में है मिलेगा मुझको 
क्यूँ मैं रातो का जाग कर यूँ घबराता हूँ 

-तरुण