मंगलवार, 26 अप्रैल 2011

मैं जब जब भी आईने से मिलता हूँ

मैं जब जब भी आईने से मिलता हूँ 
अपने चेहरे से जुदा जुदा मैं दिखता हूँ 

अंधेरो का कब खौफ था मुझको 
मैं तो उजाले में अक्सर गिरता हूँ 

ज़माना क्यूँ मुझे अपना सा लगता है 
अपने घर में तो अजनबी सा मैं फिरता हूँ 

जब तेरी याद ही काफी है जीने के लिए 
क्यूँ तुझे देखने के लिए मैं मरता हूँ 

अपने होठो से करदूं बयाँ मैं सच अपना 
इस जीने के लिए क्या क्या मैं करता हूँ 

मैं जब जब भी आईने से मिलता हूँ 
अपने चेहरे से जुदा जुदा मैं दिखता हूँ 

-तरुण 

3 टिप्‍पणियां: