मंगलवार, 29 जनवरी 2008

सज़ा


वो जिसको मैं दीवाना कहा करता था
वो जो अक्सर रातो में गुनगुनाया करता था
सुना है कल रात वह पुलिस एनकाउन्टर में मारा गया
मिला न कोई उग्रवादी शायद इसीलिए फंस वो बेचारा गया
गुनाह तो बस उसका इतना था कि वो रातो को घूमता था
दिन में अँधेरा लगता था शायद इसीलिए
रातो में अपनी महबूबा को ढूढंता था
जो न जाने कितने बरस पहले उसको छोड़ गयी थी
गरीब था बेचारा इसीलिए दिल उसका वो तोड़ गयी थी
बहुत समझाया था लोगो ने कि वो अब न आएगी
कौन बच पाया है पैसे से जो वो बच के वापिस आएगी
लेकिन वो तो दीवाना था जो करता हर पल उसका इंतज़ार
ढूढंता था उसे हर राह में , पुकारता था उसको बार बार
दिन बीते महीने बीते ने जाने कितने बरस बीत गए
दोस्त छूटे , साथी छूटे दूर सारे मीत गए
वो बचा था और उसका दीवानापन था
एक धुन थी पागलों सी और एक पागलपन था
और कल रात के अँधेरे में गोलियां चली कहीं पर
आज सुबह एक गोलियों से छलनी लाश मिली वही पर
मर गया वो जिसको दीवाना सब कहते थे
बंद हो गयी आँखे जिसमे आंसू ही बस बहते थे
खबर फैली है लेकिन यह खबर तुम उसकी महबूबा तक भी पहुँचा देना
कहना एक आंसू अपने दीवाने के लिए तुम भी ज़रा बहा देना
वर्ना मरकर भी उसकी रूह भटकती जायेगी
इस बार तो गोलियां मिली है न जाने
अगली बार वो क्या सज़ा पायेगी ....

-तरुण

(written somewhere in 1997-98)

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