गुरुवार, 17 जनवरी 2008

हिसाब


बहुत उलझा था मैं ज़िंदगी के हिसाब में
कुछ समझ ही न आता था
क्या कुछ मैं ले आया हूँ
और क्या पीछे छुट गया है
जो मिला वो शायद कम न था
लेकिन जो रह गया था
उसको सोचना भी मुश्किल था
फिर अचानक
आँखों से कुछ आंसू टपके
और लगा जैसे सब हिसाब हो गया

-तरुण

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