मंगलवार, 12 फ़रवरी 2008

साहिल


बैठकर साहिल पे हर शाम
समंदर को देखता हूँ
लहर लहर वो ऐसे आता है
मेरी तरफ
जैसे तुम एक दिन दौड़ती हुई आयी थी
और सिमट गयी थी मेरी आगोश में
उस दिन लगा था जैसे
एक समंदर समां गया है
मेरी इन बाँहों में
फिर एक दिन
तुम लहरों सी ही लौट गयी
आज जब देखता हूँ
इन लहरों को
ऐसे लौटती है वो साहिल से
जैसे एक वादा कर रही हो
कह रही हो
तुम रुको
मैं अभी आती हूँ
लेकिन जब तुम गयी थी
तुमने तो कोई वादा नही किया था
न ही मुझसे कहा था
मेरा इंतज़ार करना
फिर भी न जाने क्यों
मैं हर शाम
उसी साहिल पे तुम्हारा इंतज़ार करता हूँ
जहाँ से तुम एक दिन हाथ छुडाकर चली आयी थी
-तरुण

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