शनिवार, 9 फ़रवरी 2008

मैं कहने तुमसे आया था


मैं कहने तुमसे आया था
लेकिन होठ मेरे कुछ कह न सके
और खामोशी की जो आवाज़ हुई
उसे तुम सुन न सके न समझ पाए

मेरी आँखे भी कुछ कह देती
लेकिन तेरी आंखो में वो डूब गयी
फिर होश उन्हें अपना न रहा
वो क्या कहती क्या समझाती

जब लौटकर मैं आया था
जब उठा था मैं तेरी महफिल से
एक उम्मीद पे मैं चलता ही रहा
न पकडा तुमने दामन को , न मुझको कोई आवाज़ ही दी ॥


-तरुण

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