रविवार, 27 जुलाई 2008

तेरी लकीर

मेरे हाथो की लकीरे बहुत छोटी है
जैसे सुबह की नींद के कुछ
जागते हुए से ख्वाब
कि इससे पहले अंजाम तक पहुंचे आँखे
सुबह की रौशनी से बुझ जाते है
वो कच्चे से ख्वाब

और जब से मिले हो तुम
ये लकीरे और भी छोटी लगने लगी है मुझको
जब कभी ढूंढता हूँ
तेरी लकीर इनमे
हर लकीर अधूरी सी नज़र आती है मुझको

कुछ सोचकर आज मैंने
एक छुरी से अपनी हथेली पे
तेरे नाम की
एक नयी लकीर बनाई है
जो मेरी हथेली के इस सिरे से दुसरे सिरे तक जाती है
और अब देखकर उसको
कुछ यकीन होता है
लगता है की जब तक है जिंदगी मेरी
तुम भी मेरी हो
मेरे साथ हो

-तरुण

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