गुरुवार, 12 मार्च 2009

इंतज़ार

आधी ज़िन्दगी तो गुज़र गयी
इसी इंतज़ार में कि तुम आओगी
तुम्हारी उम्मीद पे कितनी ही राते जल गयी
न जाने कितने चाँद तुम्हारे इंतज़ार में बुझ गए
वो बरसो से सुबह जो आकर मेरे कानो में कहती थी
कि आज तो वो आएगी
वो भी बस अब थक गयी है
ये सदियों से दिन काटते काटते मैं भी कटता जा रहा हूँ
हर लम्हा मैं अहिस्ता अहिस्ता टूटता जा रहा हूँ
कहाँ हो तुम चली आओ
इतना इंतज़ार क्या काफ़ी नही इस ज़िन्दगी के लिए ...

-तरुण

5 टिप्‍पणियां:

  1. कहाँ हो तुम चले आओ
    इतना इंतज़ार क्या काफ़ी नही इस ज़िन्दगी के लिए ...

    इंतजार ..अच्छा लिखा है आपने

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  2. बहुत सुन्दर रचना है।
    घुघूती बासूती

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  3. भावनाओं का बहुत सुंदर प्रस्‍तुतीकरण ... बधाई।

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