सोमवार, 9 मार्च 2009

दिन शराब के

तुम क्या गए फिर लौट आए दिन शराब के
भीगती साँसे डूबती आँखे दिल-ऐ-बेताब के

रातो को बरसते है बादल कुछ ऐसे टूटके
छलक जाते है शब-ऐ-ग़म अश्क माहताब के

मत जाना चमन में कि माहौल ठीक नही
बहकी है कलियाँ बदले है मिजाज़ गुलाब के

मयक़दे में भी गए मगर तेरा ज़िक्र न गया
पैमानों में भी उतरे है रंग इक तेरे शबाब के

इतना नासमझ न बन, न और उम्मीद कर
तेरे अश्को से न बदलेंगे लफ्ज़ उसके जवाब के

-तरुण

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