मेरे दर्द-ए-इश्क का इक निशाँ निकला
ओ चाँद तू भी बड़ा बेईमाँ निकला
मैं जिसकी रात भर राह देखता रहा
वो तो मेरी मय्यत का कारवाँ निकला
कल मैंने खंजर से जिसको कत्ल किया
वो तो मेरा एक पुराना रहनुमाँ निकला
मैं जिसकी आवाज़ के लिए तरसता था
वो मेरा सनम बरसों का बेजुबाँ निकला
मैं क्यूँ तुझको सुनाता था दास्ताँ अपनी
ओ खुदा तू भी तो मुझ सा परेशाँ निकला
वो जो ज़माने भर का मसीहा बनता था
वो भी अन्दर से टूटा हुआ इंसाँ निकला
-तरुण
आपने लिखी तरुण ? वाह ! मगर वो खंजर जरा चुभ सा रहा बाकी तो बस मत पूँछिये -दिल बाग बाग़ !
जवाब देंहटाएंअच्छा लिखा!
जवाब देंहटाएंसच कहा.. नामुकम्मिल प्यार की दास्ताने सुनते सुनते खुदा परेशां न होता तो क्या होगा :)
जवाब देंहटाएंसुन्दर गजल के लिये बधाई
.....सोचा था हमने क्या और वो क्या निकला
जवाब देंहटाएंbahut hi behtar rachna. mujhe bahut pasand aayi.
जवाब देंहटाएंWah Wah!!
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