शनिवार, 26 अप्रैल 2008

बहुत बेदर्द है ये दर्द तेरा जीने नही देता

बहुत बेदर्द है ये दर्द तेरा जीने नही देता
मैं मयखाना लिए बैठा हूँ ये पीने नही देता

बहुत कांटे चुभोये है इस ज़िंदगी ने मेरी रूह पर
न जाने जिस्म में कौन मेरे खून को बहने नही देता

आता है कभी कभी रहम बहुत अपने इस दिल पे
भूलता है जब ये तुमको मैं इसे भूलने नही देता

यूं तो कम नही है इस जहाँ में हमसफ़र मेरे
लेकिन ये रास्ता किसी को तुम्हारी जगह लेने नही देता

एक दिन बहुत रोया था मैं तुमको छोड़कर तनहा
न जाने क्यों अब गम भी तुम्हारा मुझे रोने नही देता

-तरुण

शुक्रवार, 25 अप्रैल 2008

तेरी उस मोहब्बत का क़र्ज़ लौटाऊँ भी तो कैसे

तेरी उस मोहब्बत का क़र्ज़ लौटाऊँ भी तो कैसे
जो वादे किए नही कभी वो निभाऊं भी तो कैसे

भीड़ में यूं लगता है की हर चेहरा मेरा अपना है
लौटकर उस अजनबी से घर में जाऊं भी तो कैसे

कभी पैमाने छलक गए , कभी मयखाना नही मिला
तुझे भुलाने की कोई और दवा अब पाऊँ भी तो कैसे

तनहा ही चला था सफर पे, अकेले ही जाना है
तेरे दो पल के साथ पे ज़िंदगी बिताऊँ भी तो कैसे है

शिकायत इस दिल से, एक गिला ख़ुद से भी है
तेरी उम्मीदों पे बस जिया, अब वो भुलाऊँ भी तो कैसे

तेरी उस मोहब्बत कर क़र्ज़ लौटाऊँ भी तो कैसे ...

-तरुण

गुरुवार, 24 अप्रैल 2008

और चेहरा बदल गया - एक कहानी

अभी दो ही महीने पुरानी तो बात है, जब वो नेहा के साथ था । दोनों कितने खुश थे । वो दिन रात नेहा के सपने देखता था उसकी ही बातें करता था । उसे ऐसा लगता था की नेहा को उसके लिए ही बनाया गया है ।
सुबह से शाम तक वो दोनों न जाने कितनी बातें करते थे कितनी कसमें खाते थे । ज़िंदगी भर साथ रहेंगे , कभी न जुदा होंगे और न जाने क्या क्या । अनिल तो उसे अपनी आँखों पे बिठाकर रखता था। जब कभी भी नेहा परेशान होती वो उसकी बातें बड़े प्यार से सुनता था, फिर उसे ऐसे समझता था की वो मुस्कुराने लगती थी। वैसे अक्सर नेहा एक ही बात पे परेशान होती थी वो अपने पिताजी के रवैये को लेकर । वो अनिल को पसंद नही करते थे और दिन रात उसे अनिल से न मिलने को कहते रहते थे। नेहा उनकी बातें सुनकर मायूस हो जाती थी फिर वो घर से बाहर निकलकर अनिल को फ़ोन करती थी । अनिल उसे घंटो समझाता था और कहता था की वो सब संभाल लेगा। नेहा उससे बात करके बहुत अच्छा महसूस करती थी । दोनों इन छोटी मोटी उलझनों के बावजूद बहुत खुश थे ।
फिर एक दिन दिन वही हुआ जिसका नेहा को डर था और अनिल भी नही चाहता था की ऐसा कुछ हो । नेहा की मौसी उसके लिए एक रिश्ता लेकर आयी थी । बात जान पहचान में थी इसीलिए सब जल्दी जल्दी हो रहा था । वो एक दो दिन में नेहा को देखने आने वाले थे । नेहा उस दिन बहुत परेशान थी अनिल ने उसे बहुत समझाया लेकिन जब वो नही समझी तो उसने कहा की वो उसके पिता जी से बात करेगा। शाम को उसने ये किया भी लेकिन बात नही हुई, बहस हुई । और नतीजा ये निकला की नेहा के पिताजी ने अनिल को नेहा से दूर रहने की धमकी ही दे डाली । लेकिन अनिल को लग रहा था की उसने बात तो कर ही ली है रात को जब नेहा का फ़ोन आया उसने नेहा को समझाने की कोशिश की । लेकिन नेहा रोती रही । फिर ये सिलसिला कुछ दिनों तक चलता रहा । और एक दिन नेहा का रिश्ता भी तय हो गया । अनिल उस रात बहुत रोया, शायद आँसुओ से वो नेहा का रिश्ता मिटाना चाहता था और उसने ये कर भी दिया । अगली सुबह जब वो उठा, तो वो काफ़ी अच्छा महसूस कर रहा था ऐसा लग रहा था की वो एक नयी दुनिया में आया है ।
उस दिन जब वो ऑफिस गया तो नए मूड में था । कुछ दिनों पहले उनके यह एक नयी लड़की ने ज्वायन किया था आज वो उसके पास जाकर उससे बातें करने लगा । कुछ दिनों में ये बातें दोस्ती में बदल गयी । और फिर एक दिन अनिल ने अंजलि को वो सब कह दिया जो एक बरस पहले उसने नेहा को कहा था । लेकिन अंजलि ने उस दिन उससे कोई बात नही की। वो बस खामोश ही रही । दो दिन बाद अंजलि ने अनिल से बात की , उसके माता पिता काफ़ी दूर एक छोटे से शहर में रहते है । उन्हें शायद ये सब पसंद न आए तो वो अनिल से हर सवाल का जवाब चाहती थी । सवाल शायद जाने पहचाने ही थे । अनिल ने इनका जवाब किसी और को भी दिया था । अनिल ने एक पल नेहा को याद किया और फिर सब कुछ भूल गया । फिर उसने अंजलि से वो सब वादे कर डाले जो उसने कुछ ही दिन पहले तोड थे । अंजलि आज बहुत खुश थी उसे वो सब मिल गया था जो वो चाहती थी और अनिल भी बहुत खुश था उसे भी अंजलि मिल गयी थी ।
और अब जब भी अंजलि कुछ घबराती है , अनिल उसे बड़े प्यार से समझाता है सब कुछ करने की कसमें खाता है। दो महीने में कुछ भी तो नही बदला । सब कुछ वैसे ही चल रहा है । बस एक नाम और एक चेहरा बदल गया है ।

-तरुण

रविवार, 20 अप्रैल 2008

ऐ रात तू ही बता दे

ऐ रात तू ही बता दे , कहाँ छुपा है मेरा चाँद
बरसों हुए आँख मिलाये, बरसों से नही देखा चाँद

जाए तू शहर शहर , गुज़रे तू हर राह से
तुमने तो देखा होगा, किस गली में निकला है मेरा चाँद

चाँद के बिना मैं आधा हूँ , जैसे काली रात अमावस
संदेसा तू दे दे उसको , मुझसे मिला दे मेरा चाँद

हर रात फलक के चाँद से पूछो, जाने क्यों वो भी न बताये
उसने तो देखा होगा , जब खिड़की में निकला होगा मेरा चाँद

-तरुण

मंगलवार, 15 अप्रैल 2008

उससे पहले ही

मैं कुछ कहता
उससे पहले ही
उन्होंने सब कह दिया
मैं मुस्कुराता
उससे पहले ही
उन्होंने अपनी आँखों को झुका दिया
मैं उठता उनकी महफिल से
उससे पहले ही
उन्होंने हर शमां को बुझा दिया
कुछ आंसू छलकते आंखो से
उससे पहले ही
उन्होंने अपना दामन छुडा लिया
मैं मरता
उससे पहले ही
वो मुझको छोड़कर चले गए
मैं मरने से पहले ही मर गया ....
मैं मरने से पहले ही मर गया ...
-तरुण

रविवार, 13 अप्रैल 2008

तुझको जब मैं याद करूँ तो

तुझको जब मैं प्यार करूँ तो
ऐसे तुझको प्यार करूँ प्यार मैं
आईने से तू कुछ न पूछे
मेरी आंखो से तू ख़ुद को देखे

तुझको जब मैं याद करूँ तो
ऐसे तुझको याद करूँ मैं
मैं हर पल ख़ुद से पूछूँ
कौन हूँ मैं, क्या नाम है मेरा

तेरा जब मैं नाम लूँ तो
ऐसे तेरा नाम लूँ मैं
साँसे मेरी मुझसे ये पूछे
क्यों हमको ऐसे भुला है तू

अपने दिल से जब मैं बात करूँ तो
बस तेरी आवाज़ यूं आए
धड़कन मेरी खामोश हो सारी
तेरी बस बातें वो सुनाये


तुझको जब मैं प्यार करूँ तो ...
-तरुण

सोमवार, 7 अप्रैल 2008

मैं जी रहा हूँ

खाली खाली सा घर है मेरा
चुप चुप सी हर आहट है
न सरगोशी है कोई
न ही कोई सरसराहट है
तुम नही
तेरे ख्वाब भी नही
बस टूटी हुई सी एक चाहत है

मैं भी कही नही हूँ
जो हूँ मैं वो नही हूँ
भटकता हूँ मैं एक तलाश में
घर में कहाँ रहता हूँ
अनजाने से रास्तों पे चलता हूँ
कुछ अधूरी सी बातें कहता हूँ

तुम गए
ज़िंदगी गयी
खो गयी सब खुशियाँ मेरी
मैं रहा
साँसे रही
सब खो गयी मुस्कुराह्ते मेरी

ऐसे ही अब एक अधूरी सी
ज़िंदगी मैं जी रहा हूँ
कुछ मोती न छलक जाए आंखो से
इसीलिए
कुछ कतरे मैं हर लम्हा पी रहा हूँ
लेकिन
मैं जी रहा हूँ मैं जी रहा हूँ


-तरुण

लकीर

हर सुबह
अपने हाथो की
लकीरों को देखता हूँ
हर सुबह
उन लकीरों मैं
एक नयी लकीर को ढूंढता हूँ
क्या मालूम
मेरी रातो की
दुआओं को सुनकर
खुदा ने मेरे हाथ में
तेरी एक लकीर बना दी हो

-तरुण

वो कहते नही

मैं कहता हूँ वो कहते नही, बस आंखो में प्यार छुपाते है
मैं दुनिया को बताता रहता हूँ वो तन्हाइयो में हमे बुलाते है

मैं आसमानों की उंचाइयो पे उसकी उमीदो को सजाता हूँ
वो अपने घर के मन्दिर में, मेरा एक चिराग जलाते है

मैं गुलशन गुलशन घूमता हूँ, मिल जाए कोई कली उस जैसी
वो मेरे पुराने खतो को अपने तकिये के नीचे छुपाते है

एक आदत है जो हर शाम को मैं लौटकर घर जाता हूँ
वरना क्या दीवारों से भी कोई रिश्ते निभाए जाते है

क्यों मेरी कोई कहानी सुने, कोई क्यों मूझे दिलासा दे
जो चाँद से मोहब्बत करते है, वो रातो में आंसू बहाते है

-तरुण

जुदाई

पहले जो बातें होठो पे आती थी अक्सर
न जाने क्यों अब सीने में घुटी रहती है
जो आते थे ख्वाब रातो में कभी
न जाने क्यों वो आँखों में सिमटे रहते है
सुबह का सूरज भी न जाने क्यों
एक अजीब से बेचैनी लिए आता है
चाँद भी न जाने क्यों
अब चमकते हुए एक
एहसान सा दिखाता है
बस तुम ही तो गए हो
और तो कुछ भी नही बदला
फिर न जाने क्यों सब कुछ बदल गया है

-तरुण

विदा

फिर ऐसे ही
किसी एक मोड़ पे
आंखो में
कुछ ख्वाब छुपाये
चेहरे पे
एक मुस्कान सजाये
हाथो को
तुम्हारी तरफ़ उठाये
मैं तुम्हे
फिर मिलूंगा

मंगलवार, 1 अप्रैल 2008

भूले से भी भूल न जाना

भूले से भी भूल न जाना
नींद आए तो ख्वाब में आना

मैंने कब मांगी है खुशियाँ
मुस्कान नही तो आंसू बन आना

हो जब जब रात अमावस
मेरा चाँद तुम्ही बन जाना

जीवन की राहें बहुत मुश्किल है
दूर से ही लेकिन साथ निभाना

मिला लूँ सूर जब मैं खामोशी से
एक नगमा मेरे संग तुम भी गाना

भूले से भी भूल न जाना

-tarun