रविवार, 14 सितंबर 2008

फासले

ये फासले फैले हुए
ये रास्ते उलझे हुए
ये दरमियाँ निगाहों के
सिमटा अँधेरा
ये जुबां भी कुछ है
जुदा जुदा
ये बीच में हमारे
कभी तू कभी मैं
कभी लफ्जों की उलझन
कभी उलझे हुए से बंधन
न तुम कभी मुझे आवाज़ दो
न कभी मैं, मैं से आगे बढूँ
ये फासले यूँही चलते रहे
ये रिश्ता भी उलझा रहे
चलो
तुम आज एक आवाज़ दो
मैं इस मैं को छोड़ दूँ
तुम एक बार मिलने का वादा कर लो
मैं कभी न बिछड़ने की कसमे लूँ
तुम एक कदम बढ जाओ बस
मैं फासले सारे मिटा दूँ
तुम मुझे कुछ पल अपने दे दो
मैं तुम्हे ये अपनी ज़िन्दगी दे दूँ

-tarun

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