सोमवार, 15 सितंबर 2008

रोज़

ऑफिस से लौटकर घर
और घर में
यूँ बैठता हूँ तन्हाइयो के साथ
जैसे बहुत पुरानी
एक दोस्ती है उनसे
फिर अहिस्ता अहिस्ता
दबे होठो से
देर तक उनसे बातें करता हूँ
और अक्सर रात को बिस्तर पे
उनकी कुछ बातें जब याद आती है
तो एक मुस्कान चेहरे पर आ जाती है
धीरे धीरे नींद मेरी आँखों में चली आती है
और जब उठता हूँ तो
फिर से वही सुबह हाथ उठाये बुलाती है
और कुछ देर में
उन तनहाइयो को
घर छोड़कर मैं
दिन की कशमकश में खो जाता हूँ
-तरुण

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