शुक्रवार, 20 नवंबर 2009

त्रिवेणी

तेरे रिश्ते को कब का दफ़न कर आया हूँ
फिर भी तेरा एहसास है कि जाता नहीं

रिश्तो कि भी शायद कोई रूह होती होगी

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तेरी हर एक याद को दरियां में बहा आया हूँ
तेरी हर आहट को ख़ामोशी में सुला आया हूँ

आजकल बहुत अकेला अकेला सा लगता है

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एक बार रोते हुए माँ से चाँद को माँगा था
अब हर रात खुदा से एक तुझे मांगता हूँ

काश एक बार चाँद मेरे आँगन में उतर आये

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एक खंजर सा उतरता है सीने में
जब जब याद तुम्हारी आती है

कुछ रिश्ते खून से लिखे होते है

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कागज़ की किश्ती लिए एक दिन मैं
तेरा नाम लेकर समंदर में उतर गया था

वो समंदर अब तक मेरी आँखों से टपकता है

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तरुण

6 टिप्‍पणियां:

  1. तेरी हर एक याद को दरियां में बहा आया हूँ
    तेरी हर आहट को ख़ामोशी में सुला आया हूँ

    आजकल बहुत अकेला अकेला सा लगता है


    बहुत बढिया ।

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  2. बहुत बढ़िया , अहसास को जुबान दे दी , न रिश्ते न यादें जो दफ़न होतीं हैं सीने में , कभी मिटती हैं , मौका पाते ही सर उठा कर खड़ी हो जाती हैं , बोलने लगतीं हैं बेशक वो माध्यम कलम ही हो |

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  3. I liked all the three Triveni's by you. I've always been a great fan of Triveni form of poetry and have been a great fan of Gulzar sahab, who gave such a nice form of poetry to all of us. Once again, keep writing!
    ~Ganesh

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  4. बहुत सुन्दर त्रिवेणियां है...

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