मंगलवार, 3 जून 2008

सिगरेट

सिगरेट सा मैं दिन रात सुलगता हूँ
हर लम्हा निकलता है धुआं
आहिस्ता आहिस्ता मैं जलता हूँ
तुम जो मिले कुछ ऐसे मिले
मिले कभी, कभी मिले नही
कभी मुस्कुराया मैं तेरे आने पे
तेरे जाने पे मैं रोया कभी
तुम साथ थे मगर साथ नही
ऐसे साथ पे मैं तरसा कभी
कभी जला मैं , फिर बुझा कभी
सुलगता रहा एक सिगरेट सा
एक सिगरेट सा मैं जलता रहा

-तरुण

2 टिप्‍पणियां:

  1. हर लम्हा निकलता है धुआं
    आहिस्ता आहिस्ता मैं जलता हूँ

    isme jo maza hai wo kisi aur chez mein nahi..:-)

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  2. bhut aachi kavita.bhavnatmak purn. likhte rhe.

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