शुक्रवार, 13 जून 2008

हर चोट भी नज्म लगती है

खून आए तो ज़ख्म लगती है
वरना हर चोट मूझे नज्म लगती है
- गुलज़ार

खून आए तो ज़ख्म लगती है
वरना हर चोट मूझे नज्म लगती है

तेरा नाम लेकर जी लेता हूँ कुछ पल
वरना ये साँसे भी कुछ कम लगती है

मैं किसको देखकर मुस्कुराऊँ यहाँ
हर एक आँख यहाँ नम लगती है

अब क्या सुनाऊं उन्हें अपनी दास्ताँ
मेरी आह भी उन्हें एक सितम लगती है


कुछ ऐसे बदला है ये रिश्ता तुमसे
तुम्हारी नजदीकियां भी अब गम लगती है


-तरुण

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