शुक्रवार, 21 मई 2010

एक मोड़

न जाने कितनी बार
मुड़ मुड़ के रुक रुक के
फिर उस मोड़ पे लौटकर गया हूँ
जिस मोड़ पे तुम मेरा हाथ छुड़ाकर चली गयी थी
न जाने कितनी बार
उस एक एक राह से गुजरा हूँ
जिन पर तुम और मैं साथ चले थे

न कितनी ही बार
उस मोड़ पे घंटो रुक कर तुम्हारा इंतज़ार किया है 
कि शायद तुम भी लौटकर आ जाओ 
मगर हर बार में पहली बार कि तरह 
तनहा उदास लौटा हूँ ...

-तरुण 

8 टिप्‍पणियां:

  1. हम्म्म्म.......
    क्या भाई जान...इतन रात गए,,,आपने दर्द जख्मों को कुरेद दिया...
    खूबसूरत...

    आलोक साहिल

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  2. वाह!! बेहतरीन अभिव्यक्ति!

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  3. श्रीमान जी आपके ब्लॉग को पढ़ कर बहुत बढ़िया लगा।

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  4. In your profile photo you looks cool dude but the poem is serious and deep meaning

    Carry on Dear

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