शनिवार, 12 दिसंबर 2009

उम्मीद

न जाने कितनी बार
गिरा था मैं
मगर हर बार
कभी पल दो पल में
और कभी कुछ देर ठहरकर
मैं उठ जाता था
और चल निकलता था अपने रास्तो पे
मगर उस दिन जब तुमने
मेरा हाथ छोड़ा था
मैं कुछ ऐसे गिरा था
कि अब तक नहीं उठ पाया हूँ
और अब तक गिरा हुआ मैं
बस एक दुआ मांगता हूँ
एक बार फिर से आकर
वैसे ही मुस्कुराकर
तुम अपना हाथ दे दो
तो मैं फिर उठ जाऊँगा
और मेरी यह ज़िन्दगी बच जाएगी ...

-तरुण

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