सोमवार, 19 नवंबर 2007

तुम

कब से ढूंढ रही है आँखे तुझको
कबसे कानो में तेरी आहट की बेताबी है
जानता हूँ तू बहुत दूर है लेकीन तेरी एक परछाई मेरे पास भी है

कल देखा था तुझे मैंने अपने आँगन में
सामने बैठकर कुछ देर तलक बात भी की
आँख खुली तो ख्वाब लगा ये लेकीन हर कल एक ख्वाब ही है

कल रात चाँद में देखा था तेरा चेहरा
सुबह आयी थी ओड़कर चुनरी तेरी
शाम तक अब सब्र नही होता, तेरी जुदाई की धूप जल रह हूँ मैं

कौन है आया है देखो दरवाज़े पे हुई है दस्तक
बीते हुए पल आये है तेरी यादों का गुलदस्ता लेकर
मैंने दरवाजा खुला रखा है आओ हम लगाए कुछ फूल नए ॥


-tarun
(written at foster city, CA on 11/18/2007)

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