शनिवार, 9 फ़रवरी 2008

बूढ़ापा


एक बूढ़ा बच्चा
कागज़ की एक कश्ती को
समंदर में चला रहा है
जो वक़्त लौटकर नही आता
उन दिनों को
देखो कैसे बुला रहा है
बाल सब सफ़ेद हो गए है
लेकिन यादें शायद सब
साथ है
और जो कुछ भूल गया है
उन्हें फिर से जीकर
उस हर याद को जगा रहा है
बहुत अजीब होता है यह बूढ़ापा भी
खुद नही चल सकता लेकिन
ज़िंदगी भर की यादो को बोझ लिए चलता है
जो ख्वाब अधूरे है अब तक
उन ख्वाबो के लिए कुछ और चेहरे ढून्ढता है
और फिर उन्ही चेहरों में मरते मरते
अपनी एक नयी ज़िंदगी से मिलता है


-तरुण

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