गुरुवार, 21 फ़रवरी 2008

चलो


तुम छोड़ आओ उन रस्मों को
मैं इस घर को छोड़ देता हूँ
चलते है हम उन रास्तों पे
गुज़रते है उन राहों से
जो तेरे मेरे दरम्यां उन सब फासलों को मिटाती है
जो उन दीवारों के परे भी जाती है
जो न जाने कबसे रोके है मुझको
न जाने कबसे तुझको भी छुपाये है
इन छोटे छोटे लम्हों में न जाने कितनी सदिया बिताये है
चलो ढ़ूँढते है उस शहर को हम
वहाँ एक घर बनाते है
जहाँ सुबह का सूरज रात के ख्वाबो को सताता है
और रात में
जहाँ चाँद आँगन में उतरकर आता है
जहाँ चांदनी हर घर में जगमगाती है
हर रात को नींद न जाने कितने
ख्वाब संजोकर लाती है
चलो कुछ ऐसी हसरतों को सजाते है
इस जहाँ से अलग एक जहाँ हम बसाते है
-तरुण

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