मैं कहने तुमसे आया था
लेकिन होठ मेरे कुछ कह न सके
और खामोशी की जो आवाज़ हुई
उसे तुम सुन न सके न समझ पाए
मेरी आँखे भी कुछ कह देती
लेकिन तेरी आंखो में वो डूब गयी
फिर होश उन्हें अपना न रहा
वो क्या कहती क्या समझाती
जब लौटकर मैं आया था
जब उठा था मैं तेरी महफिल से
एक उम्मीद पे मैं चलता ही रहा
न पकडा तुमने दामन को , न मुझको कोई आवाज़ ही दी ॥
-तरुण
लेकिन होठ मेरे कुछ कह न सके
और खामोशी की जो आवाज़ हुई
उसे तुम सुन न सके न समझ पाए
मेरी आँखे भी कुछ कह देती
लेकिन तेरी आंखो में वो डूब गयी
फिर होश उन्हें अपना न रहा
वो क्या कहती क्या समझाती
जब लौटकर मैं आया था
जब उठा था मैं तेरी महफिल से
एक उम्मीद पे मैं चलता ही रहा
न पकडा तुमने दामन को , न मुझको कोई आवाज़ ही दी ॥
-तरुण
नज़्म का हुस्न भावना के हुस्न बन गया है...
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