मैं तेरे बिना तनहाइयों में जब घबराता हूँ
अपने सायें के सायें में, मैं छुप जाता हूँ
अपने सायें के सायें में, मैं छुप जाता हूँ
तेरे आने कि उम्मीदे कब मुझे थी मगर
हर सुबह यूँ ही दरवाज़े पे मैं चला जाता हूँ
जाने क्या पूछती है उसकी निगाहे मुझसे
जो चुप रहकर भी मैं सब उससे कह जाता हूँ
कब मिली है इस ज़माने की आदतें मुझसे
क्यूँ मैं फिर भी इससे मिलता जाता हूँ
जो मेरे मुक़द्दर में है मिलेगा मुझको
क्यूँ मैं रातो का जाग कर यूँ घबराता हूँ
-तरुण
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