अकेले अकेले ही जब तुमको
मुश्किल से रास्तों पे जाना हो
तनहा तनहा ही जब तुमको
नामुम्कीन सी मंजिलों को पाना हो
जब तुम लड़खडाओ और तुमको
थामने वाला कोई न हो
जब तुम रो-ओ और चिल्लाओ
और तुमको सुनने वाला कोई न हो
तब तुम आँखे ऊपर करके
देखना उस आकाश में
करना तुम बाहें ऊपर अपनी
और कहना उस भगवान् से
जब तक चल रही है साँसे मेरी
जब तक क़दमों में जान है
जब तक सीने में कुछ धड़कन है
और दिल में कुछ अरमां है
तब तक तन्हा ही में चलता रहूंगा
छोडूंगा न मंज़िलो की आस कभी
न बदलूंगा में राहें अपनी
और न छोडूंगा जिंदगी का साथ कभी
-tarun
(written somewhere in 2001, in delhi)
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