गिरती हुई शाम को कितनी बार संभाला है
रात में डूब डूब कर
न जाने कितनी बार सुबह को निकाला है
अंधेरे से डरते हुए चाँद को
कितनी बार
फलक पे टिकाकर सुलगाया है
थके हुए सूरज को
बादलो की चादर उडाकर
न जाने कितनी बार सुलाया है
जब जब भी कांपी है ये कायनात
जब जब भी घबराए है दिन रात
मैंने तेरा नाम लेकर इनके वजूद को बचाया है
-तरुण
hi tarun nice poems
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