एक बार बोली थी
कुछ ख़ुशी में गुनगुनायी भी थी
उस दिन जब तुम
मेरे करीब आई थी
मगर उस दिन के बाद
अब तलक
न कोई बोल उठा
न कोई आवाज़ हुई
बस एक उदास शाम के जैसे
ये हर रोज़ मेरे घर की छत पे बैठकर
तेरे आने के दिन गिनती है
और उन रास्तो को देखती है
जहाँ से तुम लौटकर गयी थी
मगर लौटकर आयी नहीं
लेकिन तेरे आने के उस एक दिन
और उन रास्तो को देखती है
जहाँ से तुम लौटकर गयी थी
मगर लौटकर आयी नहीं
लेकिन तेरे आने के उस एक दिन
ये फिर से बोलेगी
फिर से ख़ुशी में कुछ गाएगी
फिर से ख़ुशी में कुछ गाएगी
और एक बार उस हर नज़्म को गुनगुनायेगी
जो तेरे जाने के बाद आज तक
लिखी तो है मगर मुकम्मल न हुई
-तरुण
दूर की सोच रहे हो भाई
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया...
जवाब देंहटाएंअच्छी भावपूर्ण रचना.
जवाब देंहटाएंbahut khoob...
जवाब देंहटाएंबढिया..."
जवाब देंहटाएं