गर्मी की धूप से जलती धरती पर जब
बारिश की ठंडी बूंदे गिरती है
तब अह्सास होता है
सर्दी की ठंडी सुबह को जब कोहरे को चीरकर
कुछ नरम सूरज की किरने निकलती है
तब अह्सास होता है
बहार के मौसम में छोटे छोटे पौधों पर जब
नन्ही नन्ही कलियाँ खिलती है
तब अह्सास होता है
नन्हे छोटे बच्चो के मुख पर जब
पहली मुस्कान उभरती है
तब अह्सास होता है
जब बरसो से हारे इंसान को कुछ
उम्मीद की किरणे दिखती है
तब अह्सास होता है
जब कुछ लम्हों को जीतकर "मैं" उससे बड़ा होने लगता है
पर जब उस विश्व विजयेता पर भी वक्त की बिजली गिरती है
तब अह्सास होता है
कि वो है यहीं कहीं है हमें देख रहा है
-तरुण
शुक्रवार, 13 मार्च 2009
गुरुवार, 12 मार्च 2009
इंतज़ार
आधी ज़िन्दगी तो गुज़र गयी
इसी इंतज़ार में कि तुम आओगी
तुम्हारी उम्मीद पे कितनी ही राते जल गयी
न जाने कितने चाँद तुम्हारे इंतज़ार में बुझ गए
वो बरसो से सुबह जो आकर मेरे कानो में कहती थी
कि आज तो वो आएगी
वो भी बस अब थक गयी है
ये सदियों से दिन काटते काटते मैं भी कटता जा रहा हूँ
हर लम्हा मैं अहिस्ता अहिस्ता टूटता जा रहा हूँ
कहाँ हो तुम चली आओ
इतना इंतज़ार क्या काफ़ी नही इस ज़िन्दगी के लिए ...
-तरुण
इसी इंतज़ार में कि तुम आओगी
तुम्हारी उम्मीद पे कितनी ही राते जल गयी
न जाने कितने चाँद तुम्हारे इंतज़ार में बुझ गए
वो बरसो से सुबह जो आकर मेरे कानो में कहती थी
कि आज तो वो आएगी
वो भी बस अब थक गयी है
ये सदियों से दिन काटते काटते मैं भी कटता जा रहा हूँ
हर लम्हा मैं अहिस्ता अहिस्ता टूटता जा रहा हूँ
कहाँ हो तुम चली आओ
इतना इंतज़ार क्या काफ़ी नही इस ज़िन्दगी के लिए ...
-तरुण
मंगलवार, 10 मार्च 2009
मुझसे पूछिये
होता है क्या हिज्र-ए-ग़म मुझसे पूछिये
दिल में क्यूँ है ज़ोर-ए-सितम मुझसे पूछिये
दरवाज़े पे खड़े हो मगर दस्तक न कीजिए
इस घर में वो अब रहते है कम मुझसे पूछिये
हाथ क्यूँ बढाता है यूँ अजनबियों की तरफ़
अपनों के लिए कब उठे कदम मुझसे पूछिये
खुदा से क्या कहूँ की वो भी न मेरा हुआ
मेरे पास है बस मेरे ही ग़म मुझसे पूछिये
कबसे खामोश छुपाये बैठा हूँ हर दर्द को मैं
हर आवाज़ पे उठते है ये जख्म मुझसे पूछिये
-तरुण
दिल में क्यूँ है ज़ोर-ए-सितम मुझसे पूछिये
दरवाज़े पे खड़े हो मगर दस्तक न कीजिए
इस घर में वो अब रहते है कम मुझसे पूछिये
हाथ क्यूँ बढाता है यूँ अजनबियों की तरफ़
अपनों के लिए कब उठे कदम मुझसे पूछिये
खुदा से क्या कहूँ की वो भी न मेरा हुआ
मेरे पास है बस मेरे ही ग़म मुझसे पूछिये
कबसे खामोश छुपाये बैठा हूँ हर दर्द को मैं
हर आवाज़ पे उठते है ये जख्म मुझसे पूछिये
-तरुण
सोमवार, 9 मार्च 2009
दिन शराब के
तुम क्या गए फिर लौट आए दिन शराब के
भीगती साँसे डूबती आँखे दिल-ऐ-बेताब के
रातो को बरसते है बादल कुछ ऐसे टूटके
छलक जाते है शब-ऐ-ग़म अश्क माहताब के
मत जाना चमन में कि माहौल ठीक नही
बहकी है कलियाँ बदले है मिजाज़ गुलाब के
मयक़दे में भी गए मगर तेरा ज़िक्र न गया
पैमानों में भी उतरे है रंग इक तेरे शबाब के
इतना नासमझ न बन, न और उम्मीद कर
तेरे अश्को से न बदलेंगे लफ्ज़ उसके जवाब के
-तरुण
भीगती साँसे डूबती आँखे दिल-ऐ-बेताब के
रातो को बरसते है बादल कुछ ऐसे टूटके
छलक जाते है शब-ऐ-ग़म अश्क माहताब के
मत जाना चमन में कि माहौल ठीक नही
बहकी है कलियाँ बदले है मिजाज़ गुलाब के
मयक़दे में भी गए मगर तेरा ज़िक्र न गया
पैमानों में भी उतरे है रंग इक तेरे शबाब के
इतना नासमझ न बन, न और उम्मीद कर
तेरे अश्को से न बदलेंगे लफ्ज़ उसके जवाब के
-तरुण
गुरुवार, 5 मार्च 2009
सालगिरह
आओ इस सालगिरह पे
हम वक्त की मुठ्ठी को खोलकर
उस हर लम्हे को निकाले
जब हम साथ में मुस्कुराये थे
उस हर एक लफ्ज़ को फिर से बोले
फिर से उस हर एक वादे को दोहराएँ
जो मैंने तुमसे और तुमने मुझसे किया था
इस सालगिरह पे चलो
हम अपनी कसमो की फिर गठडी खोले
और अपनी उन कसमो को
फिर से उठा ले
फिर से उनको कुछ साँसे देदे
जो साथ रहकर हमने खाई थी
आओ इस सालगिरह पे
हम अपने अतीत की हर मीठी याद को लेकर
अपने नए कल की सुबह को सजाये
आओ इस सालगिरह पे हम अगली सालगिरह को
एक अनोखा तोहफा देकर जाए
ऐसे हम अपनी सालगिरह मनाये
-तरुण
हम वक्त की मुठ्ठी को खोलकर
उस हर लम्हे को निकाले
जब हम साथ में मुस्कुराये थे
उस हर एक लफ्ज़ को फिर से बोले
फिर से उस हर एक वादे को दोहराएँ
जो मैंने तुमसे और तुमने मुझसे किया था
इस सालगिरह पे चलो
हम अपनी कसमो की फिर गठडी खोले
और अपनी उन कसमो को
फिर से उठा ले
फिर से उनको कुछ साँसे देदे
जो साथ रहकर हमने खाई थी
आओ इस सालगिरह पे
हम अपने अतीत की हर मीठी याद को लेकर
अपने नए कल की सुबह को सजाये
आओ इस सालगिरह पे हम अगली सालगिरह को
एक अनोखा तोहफा देकर जाए
ऐसे हम अपनी सालगिरह मनाये
-तरुण
बुधवार, 4 मार्च 2009
मौसम बदल गए
हम इस कदर तेरी जुल्फ के सायें में ढल गए
अपना ही पता ढूंढने हम घर से निकल गए
तुमसे उठी है बात तो अब तुम ही जवाब दो
क्यूँ ऐसे तुम्हे देखकर सब मौसम बदल गए
यूँ तो बहुत करीब था तेरे घर का फासला
अपने ही दरवाज़े पे लेकिन हम फिसल गए
आँखों से न दो जवाब जब होठो की बात हो
आँखों से सुनी है जब भी तो हम मचल गए
रात भर शराब पीते रहे पर होश न गया
बोतल में तुम्हे देखकर हम ऐसे संभल गए
-तरुण
अपना ही पता ढूंढने हम घर से निकल गए
तुमसे उठी है बात तो अब तुम ही जवाब दो
क्यूँ ऐसे तुम्हे देखकर सब मौसम बदल गए
यूँ तो बहुत करीब था तेरे घर का फासला
अपने ही दरवाज़े पे लेकिन हम फिसल गए
आँखों से न दो जवाब जब होठो की बात हो
आँखों से सुनी है जब भी तो हम मचल गए
रात भर शराब पीते रहे पर होश न गया
बोतल में तुम्हे देखकर हम ऐसे संभल गए
-तरुण
मंगलवार, 3 मार्च 2009
खुदा तू भी इतना परेशाँ निकला
मेरे दर्द-ए-इश्क का इक निशाँ निकला
ओ चाँद तू भी बड़ा बेईमाँ निकला
मैं जिसकी रात भर राह देखता रहा
वो तो मेरी मय्यत का कारवाँ निकला
कल मैंने खंजर से जिसको कत्ल किया
वो तो मेरा एक पुराना रहनुमाँ निकला
मैं जिसकी आवाज़ के लिए तरसता था
वो मेरा सनम बरसों का बेजुबाँ निकला
मैं क्यूँ तुझको सुनाता था दास्ताँ अपनी
ओ खुदा तू भी तो मुझ सा परेशाँ निकला
वो जो ज़माने भर का मसीहा बनता था
वो भी अन्दर से टूटा हुआ इंसाँ निकला
-तरुण
ओ चाँद तू भी बड़ा बेईमाँ निकला
मैं जिसकी रात भर राह देखता रहा
वो तो मेरी मय्यत का कारवाँ निकला
कल मैंने खंजर से जिसको कत्ल किया
वो तो मेरा एक पुराना रहनुमाँ निकला
मैं जिसकी आवाज़ के लिए तरसता था
वो मेरा सनम बरसों का बेजुबाँ निकला
मैं क्यूँ तुझको सुनाता था दास्ताँ अपनी
ओ खुदा तू भी तो मुझ सा परेशाँ निकला
वो जो ज़माने भर का मसीहा बनता था
वो भी अन्दर से टूटा हुआ इंसाँ निकला
-तरुण
रविवार, 1 मार्च 2009
इक तेरा ग़म
इक तेरा ग़म सह सहकर हम कल रात भर रोते रहे
आँखों की तरह शब को भी हम अश्को में डुबोते रहे
तेरा जाना हमे मंज़ूर था तेरा जाना हम पी भी गए
तेरी यादों का पर जो सुरूर है उसमे बस हम खोते रहे
वादा किया भूल गए तुम ख्वाब में भी न हमसे मिले
तेरे इक ख्वाब की उम्मीद में हम कितने दिन सोते रहे
इक तेरा रिश्ता था बहुत ये दुनिया कब हमे मंजूर थी
तुम ही कहो क्यूँ अब तेरे बिन सब मेरे अपने होते रहे
क्या कहूँ कैसे कहूँ मेरे लफ्ज़ तो जैसे सब बुझ गए
तेरी आवाजो को लेकिन हम इन सांसो में पिरोते रहे
इक तेरा ग़म सह सहकर हम कल रात भर रोते रहे ...
-तरुण
आँखों की तरह शब को भी हम अश्को में डुबोते रहे
तेरा जाना हमे मंज़ूर था तेरा जाना हम पी भी गए
तेरी यादों का पर जो सुरूर है उसमे बस हम खोते रहे
वादा किया भूल गए तुम ख्वाब में भी न हमसे मिले
तेरे इक ख्वाब की उम्मीद में हम कितने दिन सोते रहे
इक तेरा रिश्ता था बहुत ये दुनिया कब हमे मंजूर थी
तुम ही कहो क्यूँ अब तेरे बिन सब मेरे अपने होते रहे
क्या कहूँ कैसे कहूँ मेरे लफ्ज़ तो जैसे सब बुझ गए
तेरी आवाजो को लेकिन हम इन सांसो में पिरोते रहे
इक तेरा ग़म सह सहकर हम कल रात भर रोते रहे ...
-तरुण
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