शुक्रवार, 21 नवंबर 2008

तुम आ जाओ एक बार

न जाने कब से
साँसे होठो पे अटकी है
न जाने कब से
दम घुट रहा है मेरा
न जाने कब से
आवाजे भी मेरी चुप है
तुम्हे बुलाना चाहता हूँ
मगर जुबां कुछ कहती नही
न जाने कब से
देखो कैसे पड़ा हूँ
इंतज़ार कर रहा हूँ तुम्हारा
दिन रात ऐसे ही बुझा रहता हूँ
लगता है कभी ज़िन्दगी जा रही है
मगर न जाने क्यूँ ये जाती भी नही
तुम बस आ जाओ एक बार
देखना कैसे फिर
साँसों को मेरी साँस मिलेगी
कैसे आवाजे मेरी बोलेगी
और मैं कैसे एक बच्चे सा फिर चह्कूंगा
तुम आ जाओ एक बार
और मेरे इस जिस्म को एक रूह दे दो

-तरुण

5 टिप्‍पणियां:

  1. optimism se bharpoor kavita hai... Kash ki jab hum aisa kuch likhte to wo sach ho jata. Lekin jindagi ek KASH me he to atak kar rah jati hai kai baar..

    Ur peom is really very nice, felt tht its having the feeling in which i write most of my poems. Very nice peom.

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  2. मुंबई में जो कुछ हुआ उसके लिया बहुत दुखी हूँ. मन हल्का करने के लिए यहाँ चला आया हूँ.

    आपकी रचना पढ़ी, रचना काफ़ी सशक्त है. मेरी बधाई स्वीकार करें

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  3. आपकी रचना पढ़ी, रचना काफ़ी सशक्त है. मेरी बधाई स्वीकार करें

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  4. आप की रचना दिल को छू जाती है...

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  5. क्या मैं आप की रचना को अपने दोस्त तक पहुँचा सकता हूँ....

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